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________________ ११. विषमसूचि स्थानक प्रकरण प्रसारितौ पुरः । यत्र युगपच्चेत्सूचीपादौ पश्चादपि तदा प्रोक्तं [स्थानं विषमसूचि ] तत् । केचित् पादौ क्षितिश्लिष्टजानुगु [ल्फौ ब] भाषिरे ॥१३१॥ यदि सूची मुद्रा में दोनों पैर एक साथ आगे या पीछे फैला दिये जायें, तो उसे विषमसूचि स्थानक कहते हैं । कुछ आचार्य पृथ्वी से सटे हुए घुटने तथा टखने वाले पैरों को विषमसूचि स्थानक कहते हैं । १२. खण्डसूचि कः कुञ्चितः पादः परस्तिर्यक् [ प्रसारि] तः । क्षितिश्लिष्टोरुपाणिश्चेत्तदोक्तं खण्डसूचि तत् ॥ ३२ ॥ 947 948 यदि एक पैर सिकुड़ा हुआ हो और दूसरा पैर तिरछा फैला हुआ हो तथा जाँघ और एड़ी पृथ्वी से सटी हुई हों, तो उसे खण्ड सूचि स्थानक कहते हैं । १३. पाष्णिपार्श्वगत 949 [पार्ष्णि ] पार्श्वगतेऽन्यस्यान्तः पार्ष्णिः पार्श्वतो भवेत् ॥१३३॥ यदि एक पैर की एड़ी दूसरे पैर के नीचे बगल में रखी जाय, तो उसे पाष्णिपार्श्वगत स्थानक कहते हैं । १४. एक पार्श्वगत [ अ ] तः समपादस्य मनागङ्घ्रिः परो यदा । तिर्यग्बहिः पार्श्वगतः एकपार्श्वगतं त [ दा] ॥१३४॥ 950 जब समस्थित एक पैर के आगे दूसरा पैर कुछ तिरछा करके बाहरी बगल में रख दिया जाता है, तब उसे एकपादवंगत स्थानक कहते हैं । १५. परावृत्त उभौ भूत्वा तिरश्चीनौ चरणावेतयोर्यदा । एकस्याङ्गुष्ठको यत्र परस्य च कनिष्ठिका | पार्श्वक मिश्रिते द्वे स्तः परावृत्तमिदं तदा ||३५|| जब दोनों पैर तिरछे रहें; उनमें से एक का अंगुष्ठ और दूसरे की कनिष्ठिका एक बगल से मिली रहें, तब उसे परावत स्थानक कहते हैं । 95) २५३
SR No.034223
Book TitleNrutyadhyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokmalla
PublisherSamvartika Prakashan
Publication Year1969
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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