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________________ लास्यांग प्रकरण जैसे मंद वाय के झोंके से दीपक की लौ चलायमान हो जाती है, उसी तरह जहाँ अंग चलायमान हों, वहाँ सवा नामक लास्यांग होता है। ३२. मसणता मुग्धां स्निग्धां यदा दृष्टि तनुते रसनिर्भराम् । नृत्यहस्तानुगां नृत्ये तदा मसृणता भवेत् ॥१५५६॥ 1669 जब नृत्य में नृत्य-हस्तों का अनुगमन करने वाली मुग्ध, स्निग्ध तथा रसभरी दृष्टि को फैलाया जाय, तब मसणता, नामक लास्यांग होता है। ३३. उपार पूर्व पूर्वमुपक्रान्ता नृत्यस्यावयवा यदा । भूषावलितसर्वाङ्गा वर्तेरन्नुत्तरोत्तरम् । 1670 तालप्रयोगनैपुण्यात् तदोपारो मतो बुधैः ॥१५६०॥ जब पहले-पहले आरंभ किये गये नृत्य के अवयव आभूषणों से सर्वांग युक्त होकर आगे-आगे ताल-प्रयोग निपुणता से विद्यमान रहें, तब उपार नामक लास्यांग होता है। ३४. अंगामंग अङ्गं लास्याङ्गमादिष्टमनङ्गं ताण्डवं मतम् । 1671 यत्र नृत्येऽनयोर्योगस्तदङ्गानङ्मीरितम् ॥१५६१॥ अंग को लास्यांग और अनंग (काम) को ताण्डव (नृत्य) कहा गया है । जहाँ नृत्य में दोनों का योग होता है वहाँ अङ्गानङ्ग नामक लास्यांग होता है। ३५. अभिनय भावप्रकाशकैरङ्गैर्यथावत् करणादिकम् । 1672 विदध्याद् यत्र पात्रं चेदसावभिनयस्तदा ॥१५६२॥ जहाँ पात्र भावसूचक अंगों से अच्छी तरह करण आदि की रचना करे वहाँ अभिनय नामक लास्यांग होता है। ६. कोमलिका यदा नृत्येङ्गनाङ्गानां क्रियाभिर्वलनादिभिः । 1673 माता प्रेक्ष्यते चित्तात् परा कोमलिका तवा ॥१५६३॥ स
SR No.034223
Book TitleNrutyadhyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokmalla
PublisherSamvartika Prakashan
Publication Year1969
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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