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________________ अंगहारोका निरूपण प्राक्षिप्तं च तथा छिन्नं वामतो भ्रमरं पुनः । नितम्बं करिहस्तं च कटिच्छिन्नं समाचरेत् ॥१३४६॥ 1427 तदाङ्गहारो दशभिरमीभिः करणरसौ । मत्तक्रीडोऽथ गणनाम्यासेन भ्रमरस्य सः । 1428 एकादशभिरादिष्टो बुधः शङ्करशङ्करः ॥१३५०॥ जब दक्षिण भाग से १. ममर, २. नूपुर, ३. भुजंगवासित, ४. वैशाखरेचित, ५. आक्षिप्त तथा ६. छिन्न करणों की रचना करके वामभाग से पुनः ७. भमर, ८. नितम्ब, ९. करिहस्त तथा १०. कटिच्छिन्न-इन दस करणों की रचना की जाती है, तब मत्तक्रीड अंगहार बनता है। यहाँ विद्वानों का कहना है कि ग्रमर की एक बार और गणना करने से ११. करणों से मत्तक्रीड अंगहार बनता है, जो शंकर को प्रिय है। . ७. भामर नपुराक्षिप्तके छिन्नसूचीनी च नितम्बकम् । 1429 करिहस्तं च करणमुरोमण्डलसंज्ञकम् । कटिच्छिन्नं च करणरमीभिभ्रमरो भवेत् ॥१३५१॥ 1430 १. नुपुर, २. आशिप्तक, ३. छिन्नसूचि, ४. नितम्ब, ५. करिहस्त, ६. उरोमण्डल और ७. कटिच्छिन्न-इन करणों की रचना से समर अंगहार बनता है। ८. विद्युद्धान्त वामतश्चेदर्धसूचि विद्युभ्रान्तं तु सव्यतः । पुनरेतद् द्वयं चाङ्गविपर्यासाद् विधाय च ॥१३५२॥ 1431 प्रथाच्छिन्नमतिक्रान्तं वामाङ्गेऽथ समा[चरेत् । तला(?लता)धं वृश्चिकं पश्चात् कटिच्छिन्नमिति क्रमात् ॥१३५३॥ षड्भिस्तु करणरेभिविद्युभ्रान्तो मतस्तदा । 1432 प्रायद्विकरणाभ्यासगणने स मतोऽष्टभिः ॥१३५४॥ 1433 वामभाग से अर्षसूचि, दक्षिण भाग से विद्यमान्त और पुनः इन दोनों को अंगपरिवर्तन द्वारा सम्पन्न करके वामभाग में छित्र तथा अतिकान्त करणों की रचना करे; पश्चात् लतावृश्चिक और कटिच्छिन्न को क्रमशः ३५१
SR No.034223
Book TitleNrutyadhyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokmalla
PublisherSamvartika Prakashan
Publication Year1969
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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