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नृत्याध्यायः
द्वितीय
त्रिपताको यदा पाणी विषमासनसंश्रितो । विधाय मण्डिका पादौ यथास्वं च पदे पदे ॥१५६४॥ 1708 नीत्वा तत्र करौ चित्रं सन्देशमथ कुर्वती । पश्यन्त्यग्ने पार्श्वयोश्च चकितेव नटी मुहुः । 1709
तनोति यत्र नृत्तं स बकभेदो द्वितीयकः ॥१५६५॥ जब त्रिपताक दोनों हाथों को विषम आसन पर टिकाकर मण्डिका नामक मद्रा (दे० श्लोक १५९६) रचकर दोनों पैरों को बगलों प्रत्येक पग में ठीक ढंग से रखकर चित्र तथा सन्देश नामक दोनों हाथों को बनाकर आगे और बगलों में चकित होकर बार-बार देखती हुई नर्तकी नृत्य का विस्तार करती है, तब द्वितीय बककलास निष्पन्न होता है।
तृतीय
सव्यापसव्यतो यत्र वामं दक्षिणतस्तथा । 1710 जानु सत्वरमापात्य भुव्यङ्ग्री स्थापयेद् यदा ॥१५६६॥ मण्डिका सा तदा प्रोक्ताशोकमल्लेन भूभुजा । 1711 विधाय मुकुलं हस्तं क्षिप्रमग्ने शनैरनु ॥१५९७॥ गच्छन्त्यनुपदं तद्वन्नटी स्खलति खिद्यति । 1712 धृतमुक्त यथा मीने बकोऽस्यानुपदं क्रमात् ॥१५९८॥ अलपद्ममरालं च मुकुलं यत्र कुर्वती । 1713 नृत्ये चित्रमसौ भेदो बकस्य स्यात् तृतीयकः ॥१५६६॥
जब बायें-दायें क्रम से दाहिने तरफ से बायें घुटने को शीघ्रता से मोड़कर दोनों पैरों को पृथ्वी पर स्थापित किया जाता है तब राजा अशोकमल्ल उसे मण्डिका कहते हैं। जहाँ मकल हस्त की रचना करके आगे शीघ्रता से और पीछे धीरे से चलती हुई नर्तकी, पकड़ी हुई मछली के छूट जाने पर बगुले की तरह, कदम-बकदम गिरती है और खिन्न होती है तथा अलपन, अराल एवं मुकुल हस्त की रचना करती हुई नाचती है, वहाँ तृतीय बककलास निष्पन्न होता है।