________________
नत्याध्यायः
विषमं वा ततः स्थानात्समुत्प्लुत्य समाज्रिकम् । 1721
गच्छेत् तदा प्लवस्योक्तः सद्धिर्भेदो द्वितीयकः ॥१६०६॥ यदि त्रिपताक नामक दोनों हाथों की रचना करके बायें पैर और बायें हाथ को आगे किये हए नर्तकी एकमात्रिक ताल के प्रमाण से बायीं ओर जाकर सम या विषम नामक आसन को बाँधे; फिर उस स्थान से उछलकर सम पैर से चले । ऐसा करने पर सज्जनों ने द्वितीय प्लवकलास बताया है।
तृतीय
त्रिपताको कटीक्षेत्रे विधाय सममासनम् । 1722 विषमं वा यदा स्थित्वा स्थित्वोत्प्लुत्य महीतले ॥१६०७॥ दधती चरणौ गच्छेल्लघुमानात् पुरोऽनु वा ।। 1723
पश्यन्तीमवनि ज्ञेयः प्लवभेदस्तृतीयकः ॥१६०८।। त्रिपताक नामक दोनों हाथों को कटिक्षेत्र में रखकर सम या विषमआसन पर स्थित होकर तथा उछलकर पृथ्वी पर पैरों को रखती हुई नर्तकी यदि एकमात्रिक ताल के प्रमाण से आगे या पीछे पृथ्वी को देखती हुई चले, तो वहाँ तृतीय प्लवकलास समझना चाहिए ।
चतुर्थ
यदाने पृष्ठतश्चैव व्युत्क्रमात्क्रमतोऽथवा । 1724 सव्यापसव्ययोर्नृत्यं चतुर्धा सम्प्रजायते ।
तदा भेदः प्लवस्य स्याच्चतुर्थश्चतुरोदितः ॥१६०६॥ 1725 जब आगे और पीछे व्यतिक्रम या क्रम से बायीं-दायीं ओर चार प्रकार से नृत्य किया जाता है, तब चतुर्थ प्लवकलास निष्पन्न होता है।
तीन हंसकलास (६)
प्रथम
हस्तौ विधाय हंसास्यौ यत्र हंसीवनर्तकी । अतिरम्याज्रिविन्यास नागतिमनोहरम् ॥१६१०॥ 1726 यदा नृत्यति हंसाद्यः कलासः स तदोदितः । नर्तकी दक्षिणे पावें विधाय मकरं करम् ॥१६११॥ 1727
४०२