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नत्याध्यायः
तिर्यगूर्वमधोऽधश्चेदारादातन्वती नटी। 1681 विभाति विद्युदाद्यस्तु कलासः स तदोदितः ॥१५७१॥ वामं करं पताकाख्यं नीत्वा दक्षिणकर्णकम् । 1682 तथा परं करं वामां कटि वामां च जङ्घिकाम् ॥१५७२॥ एतद्व्यत्यासनेनापि कृत्वा पाणिद्वयं ततः । 1683
सम्मुखं रचयेद् विद्युभेद प्राद्यो भवेदसौ ॥१५७३॥ जैसे मेघों की पंक्ति में बिजली चमत्कार के साथ चमकती है, उसी तरह जहाँ त्रिमात्रिक ताल के मान से बनाये हुए पताक आदि हस्तों को तिरछे, ऊपर, नीचे और दुर या समीप फैलाती हई नर्तकी विराजमान होती है, वहाँ प्रथम विद्युत्कलास होता है। बायें हाथ को दाहिने कान, बायें हाथ, बायीं कटि और बायीं जाँघ के पास ले जाकर सामने पताक हस्त की रचना करे । उसको बदलकर भी हाथ की रचना करे; अर्थात् बायें पताक हस्त के बदले दाहिने हाथ को पताक हस्त में परिणत करे। ऐसा करने से भी प्रथम विद्युत्कलास बनता है। द्वितीय
विधाय दक्षिणं पाणिमर्धचन्द्र स्वसम्मुखम् । 1684 विलोक्य च नटी कुर्याद् धनुराकृति जानु चेत् ।
तदा भेदो द्वितीयः स्याद् विद्युदाद्यकलासजः ॥१५७४॥ 1685 अपने सम्मुख दाहिने हाथ को अर्धचन्द्र हस्त में परिणत करके नटी घुटने को धनुष के आकार में प्रस्तुत करे। ऐसा करने से द्वितीय विद्युत्कलास बनता है।
तृतीय
समदृष्टिर्नटी हस्तमञ्जलि प्रविधापयेत् । अस्याङ्गुलीः प्रसार्याथ पुरतः शिखरं करम् । 1686
कृत्वा प्रसारयेद् बाहू तदा भेदस्तृतीयकः ॥१५७५।। सीधी दृष्टि वाली नर्तकी अञ्जलि हस्त की रचना करके उसकी उँगलियों को फैला दे; फिर सामने शिखर हस्त की रचना करके दोनों भुजाओं को फैला दे । ऐसा करने से तृतीय विद्युत्कलास बनता है।
चतुर्थ
1687
केशबन्धौ करौ [क] त्वा क्रमादलिकमूर्धनोः । करौ दक्षिणवामौ चेन्निधाय द्वौ पताकको ।
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