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नृत्याध्यायः
रचयेद् हस्तकः पात्रं चारीभिः करणैरपि ।
भ्रमरीभिश्च सम्प्रोक्तं विवर्तनमिदं बुधैः ॥१५५३॥ 1663 जहाँ पात्र वाद्य और गीत के वर्गों के साम्य से हाथों, चारियों, करणों और भ्रमरिथों द्वारा नृत्य प्रस्तुत करे, वहाँ उसे बुधजन विवर्तन नामक लास्यांग कहते हैं। २८. थरहर
नर्तने तनुयात् क्षीप्रं कम्पनं कुचयोर्नटी ।
भुजावधि विलासेन यदा थरहरं तदा ॥१५५४॥ 1664 जब नर्तकी नृत्यकाल में कुचों के कम्पन को हाव-भाव के साथ शीघ्रतापूर्वक बाँहों तक फैलाती है, तब थरहर नामक लास्यांग होता है। २९. स्थापना
या स्थितिललिता भूमौ सरेखमुखरागभाक् ।
समाधै नर्तनेऽङ्गानां प्राहुस्तां स्थापनां बुधाः ॥१५५५॥ 1665 नत्य के बराबर आधे भाग में भूमि पर अंगों को ऐसे सुन्दर ढंग से स्थापित किया जाय, जिसमें रेखा सहित चेहरे का रंग स्पष्ट दिखायी दे, तो उसे बुधजन स्थापना नामक लास्यांग कहते हैं। ३०. सौष्ठव
सौष्ठवस्य पुरोक्तस्य चतुभिर्बाष्टभिमिता । यद् वा द्वादशभिर्यत्रामुलैर्वा खर्वता त्रिधा ॥१५५६॥ 1600 तत्तद्देशानुसारेण कटिकण्ठोरुजानुषु ।
वाञ्छया वा महीपस्य सद्भिस्तत् सौष्ठवं मतम् ॥१५५७॥ 1667 पहले बताये गये सौष्ठव को चार, आठ या बारह अंगुल के नाप से कटि, कण्ठ, जाँघ और घुटने में तीन बार देशविशेष के अनुसार या राजाज्ञा के अनुसार छोटा कर दिया जाय, तो सज्जन लोगों ने उसे सौष्ठव नामक लास्यांग कहा है। ३१. बुवा
यथा मन्दानिलाघाताचलेद्दीपशिखा तथा । चलेयुर्यत्र गात्राणि सा जुवा परिकीर्तिता ॥१५५८॥ 1068
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