________________
नृत्याध्यायः
५. अग्रतलसंचर पाद और उसका विनियोग
उत्क्षिप्तपाणिः प्रसृताङ्गुष्ठको न्यश्चितागुलिः । यः पादोऽसावनतलसञ्चरः प्रेरणे भवेत् ॥३५०॥ 361 पीडने कुट्टने स्थाने भ्रमणे रेचके मदे ।
भूस्थापसारणे भूमिताडनेऽपि मतः सताम् ॥३५१॥ 362 जब पाणि उठी हो, अंगुष्ठ फैला हो और उँगलियाँ सिकुडी ( न्यञ्चित ) हों, तब उसे अग्रतलसञ्चर पाद कहते हैं । प्रेरणा, पीड़न (पीड़ा देना), कूटने, स्थान, भ्रमण, रेचक प्राणायाम, मद, भूमि पर से किसी वस्तु को हटाने और भूमि रौंदने के अभिनय में सज्जनों ने इस पाद का विनियोग बताया है। . . ६. उद्घट्टित पाद
स्थित्वा पादतलाग्रेण स्थितौ पाणिनिपात्यते ।
असकृद्वा सकृद्वापि तदोद्घट्टित ईरितः ॥३५२॥ 363 जब एक बार या बार-बार पैर के अग्रभाग के बल खड़ा होकर एड़ी को नीचे गिरा दिया जाता है, तब उस पाद को उद्घटित कहते हैं । ७. नोटित पाद और उसका विनियोग
अवष्ठभ्य भुवं पाया यः पादोऽग्रेण हन्ति ताम् ।
स नोटिताभिधो योज्यो गर्वे रोषेऽपि सूरिभिः ॥३५३॥ 364 जो पैर एड़ी से भूमि का सहारा लेकर अग्रभाग से भूमि को आहत करता रहता है, तो वह बोटित कहलाता है । गर्व और क्रोध के अभिनय में उसका विनियोग होता है । ८. घट्टितोत्सेध पाद और उसका विनियोग
क्रमाद्यो घट्टयत्यग्रपाणिभ्यामसकृद् भुवम् ।
स पादो घट्टितोत्सेधस्ताण्डवे सद्भिरीरितः ॥३५४॥ 365 जो पैर अग्रभाग तथा एड़ी से बार-बार भूमि को आहत करता है, वह घट्टितोत्सेध कहलाता है । सज्जनों के कथनानुसार ताण्डवनृत्य में उसका विनियोग होता है। ९. घट्टित पाद और उसका विनियोग
घट्टितो घट्टयन्पाणिर्भुवं प्रोक्तोऽल्पनोदने ॥३५५॥ १२६