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नृत्याध्यायः
freeम्य तद्वदाक्षिप्य हृदि तं खटकामुखम् । कुर्यादेव पराङ्गं च तत् तदाक्रान्तमीरितम् ॥१२१४॥ 1243 जहाँ अतिक्रान्ता चारी के द्वारा एक पैर को पतित करते हुए सिकोड़ कर पीठ की ओर स्थापित करके आगे की ओर प्रसारित किया जाय; फिर उसे घुमाकर वक्ष की ओर ले जाया जाय; और तत्पश्चात् वहाँ से हटाकर उसे खटकामुख मुद्रा में हृदय पर अवस्थित किया जाय; इसी प्रकार दूसरे पैर को भी किया जाय; वहाँ कान्त करण होता है ।
४०. भुजंगत्रस्तरेचित
भुजङ्गत्रासिता यत्र चारी स्याद् रेचितौ करौ ।
वामपार्श्वे तदाख्यातं भुजङ्गत्रस्त रेचितम् ॥१२१५ || 1244
जहाँ पैरों में भुजंगत्रासिता चारी हो और दोनों रेचित हाथ वाम पार्श्व में अवस्थित हों, वहाँ भुजंगत्रस्त रेचित करण होता है ।
४१. भुजंगाञ्चित
सव्याङ्घ्रिणा यदा चारी भुजङ्गत्रासिताभिधा । रेचितः स्यात् करः सव्यो वामपाणिर्लताकरः । यत्र धीरस्तदाख्यातं भुजङ्गाश्चितकं त्वदः ॥१२१६॥
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जहाँ दाहिने पैर से भुजंगत्रासिता चारी बनायी जाय; दाहिना हाथ रेचित मुद्रा और बायाँ हाथ लताहस्त
मुद्रा में हो; धीर पुरुषों के मत से, वहाँ भुजंगाञ्चित करण होता है ।
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४२. आक्षिप्त और उसका विनियोग
चार्याक्षिप्ता यदा क्षिप्तः खटकश्चतुरोऽथवा । तदाक्षिप्तमिदं
धीरे
जब पैर आक्षिप्ता चारी में और हाथ खटक या चतुर मुद्रा में हों, धीर पुरुषों के मत से उसे आक्षिप्त करण कहते हैं ।
- विदूषकगतौ
विदूषक की चाल के अभिनय में आक्षिप्त करण का विनियोग होता है ।
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स्मृतम् ॥१२१७॥
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