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नृत्तकरण प्रकरण
जहाँ स्थितावर्ता नामक चारी और उरोमण्डलिन नामक दोनों हाथों की रचना की जाय, वहाँ उरोमण्डल करण होता है ।
६३. विक्षिप्त और उसका विनियोग
विद्युद्भ्रान्तां दण्डपादां चारों च क्रमतो यदि । विधायोद्वेष्टने नापवेष्ठनेनापि
हस्तकौ ॥१२४३|| 1277
एकाध्वयायिनौ यत्र रेचयन्पुरतोऽनु च । पार्श्व [वि] क्षिपेत् तत् स्याद्विक्षिप्तकरणं तदा ।
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यदि क्रमशः समुद्भ्भ्रान्ता और दण्डपादा चारियों को बनाकर दोनों हाथों को उद्वेष्टित तथा अपवेष्टित द्वारा समस्थिति में लाया जाय; पुनः उन्हें रेचित कर आगे-पीछे तथा अगल-बगल में चलाया तथा फेंका जाय; तो उसे विक्षिप्त करण कहते हैं ।
परिक्रमे ॥१२४४ ॥
विनियोगोऽस्य कथित उद्धतस्य उद्धतपूर्ण गति में विक्षिप्त करण का विनियोग होता है । ६४. पार्श्वनिकुट्टक और उसका विनियोग
विधाय स्वस्तिको हस्तौ यत्रोवस्यस्तयोः करः ।
एको निकुट्टितः पार्श्वे द्वितीयोऽधोमुखस्तथा ॥१२४५॥ पादावेतत्पार्श्वनिकुट्टकम् ।
तद्वनिकुट्टितौ
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यदि दोनों हाथों को स्वस्तिक मुद्रा में बनाकर उनमें से एक को ऊर्ध्वमुख करके पार्श्व में कुट्टित किया जाय और दूसरे को अधोमुख करके दूसरे पार्श्व में कुट्टित किया जाय; उसी प्रकार दोनों पैरों को भी कुट्टि किया जाय तो उसे पार्श्वनिकुट्टक करण कहते हैं ।
सद्भिः सञ्चरणाभ्यासे प्रकाशेन समीरितम् ॥ १२४६ ॥
चलने या घूमने के अभ्यास के अभिनय में सज्जनों ने पाइर्वनिकुट्टक करण का विनियोग बताया है । ६५. तलसंस्फोरित
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दण्डपादाख्ययाथवा ।
प्रतिक्रान्ताख्यया चार्या क्षिप्रमुत्क्षिप्य पादेऽग्रे पात्यमाने यदा करौ ।
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