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नत्याध्यायः
स्थानकेऽथ करंसव्यं कट्यां न्यस्येत् ततः पराम् । :
विदध्याद्रेचितं पाणि तलसट्टितं तदा ॥१२८२॥ 1323 यदि दोलापाद नामक चारी की रचना करके दोनों पताक हस्तों की हथेलियों को मिला दिया जाय; फिर वैष्णव स्थानक धारण किया जाय; तत्पश्चात दाहिने हाथ को कटि पर रख कर दूसरे बाँये हाथ को रेचित में कर दिया जाय; तो उस मुद्रा को तल संघटित करण कहते हैं । ९३. लोलित
यदैको रेचितो हस्तोऽन्योऽलपद्मो हृदि स्थितः । शिरस्तु लोलितं पार्श्वद्वये विश्रान्तिमत् ततः । 1324
वैष्णवं स्थानकं यत्र तदा तल्लोलितं मतम् ॥१२८३॥ यदि एक हाथ रेचित और दूसरा अलपद्म बना कर हृदय पर रख दिया जाय; फिर शिर को भी लोलित करके उसे (क्रमशः) दोनों पावों में अवस्थित किया जाय; तदनन्तर वैष्णव स्थानक की रचना की जाय; तो उसे लोलित करण कहते हैं। ९४. शकटास्य और उसका विनियोग
शकटास्याभिधा चारी पाणिरेकोऽघ्रिणा समम् । 1325 प्रसृतोऽथ परो हस्तः खटकास्यो हृदि स्थितः ।
यत्रेद्रं शकटास्यं स्याद्यदि शकटास्य चारी की रचना करके एक हाथ एक पैर के समान फैला हो और दुसरा खटकास्य मुद्रा में हृदय पर अवस्थित हो; तो वहाँ शकटास्य करण होता है।
-बालखेलनगोचरम् ॥१२८४ ॥ 1326 बालक्रीड़ा के अभिनय में शकटास्य करण का विनियोग होता है। ९५. वृषभक्रीडित
चारी कुर्वन्नलातां चेदाचरेद्रेचितौ करौ । व्यावर्त्तनेन चाकुञ्च्य स्थापयेद् भुजशीर्षयोः । 1327 अलपद्माकृती कृत्वा वृषभक्रीडितं तदा ॥१२८५॥
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