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मण्डलों का निरूपण शकटास्यस्ततोऽनूरूवृत्तोऽध्रिः स्यादथापरः । अघ्रिश्चाषगतिद्विः स्यात् स्पन्दितो दक्षिणस्ततः ॥१४७७॥ 1675 शकटास्यो भवेद्वामः पराज्रिभ्रमरोऽथ चेत् ।
अघ्रिश्चाषगतिमिस्तदावर्तमुदीरितम् ॥१४७८॥ 1576 दाहिना पैर जनिता चारी से युक्त हो तथा बायाँ स्थितावर्ता से युक्त होकर शकाटाल्या, एडकाकोरिता, ऊरूवृत्ता, अड्डिता, पुनः जनिता तथा स्मोत्सरितमत्तत्ली से क्रमशः युक्त हो; दाहिना पैर शकटास्या तथा ऊरूद्वत्ता से युक्त हो और बायाँ पर चाषगति में दो बार यक्त हो; पुनः दाहिना पैर स्पन्दितासे तथा बायाँ पैर शकटास्या से युक्त हो; फिर दाहिना भ्रमरी से युक्त हो और बायाँ चाषगति से युक्त हो; तो आवर्त भूमिमण्डल होता है। ७. एलकाकोडित
भूमिश्लिष्ट्रयदा पादैः सूचीविद्धं समाश्रितः । एलकाक्रीडितः सूचीविद्धरपि पुनः पुनः ॥१४७६॥ 1677 सम्पूर्णभ्रमणः प्राग्वत् सूचीविद्धस्ततोऽध्रिभिः । पाक्षिप्तर्मण्डलभ्रान्त्या चतुर्दिश्ववसानके ।
1678 तदेलकाक्रीडिताख्यमाख्यातं मण्डलं बुधैः ॥१४८०॥ भूमि से सटे हुए पैर सूचीविद्ध नामक करण का आश्रय लेकर एलकाक्रीडित तथा पुनः-पुनः सूचीविड करणों से युक्त होकर पूर्ण रूप घुमाये जाते हुए आक्षिप्त करणों में अवस्थित किये जाय; फिर अन्त में चारों दिशाओं में मण्डलाकर घुमाने से एलकाक्रीडित भूमिमण्डल बनता है, ऐसा विद्वानों का कहना है । ८. आस्कन्वित
दक्षिणो भ्रमरः पादस्ततो वामोऽड्डितो भवेत् । 1579 दक्षिणः शकटास्यत्वं प्राप्तोऽरुवृत्ततां व्रजेत् ॥१४८१॥ यदा वामोऽध्यधिकः स्याद् भ्रमरो दक्षिणः पुनः । 1580 स्पन्दितः शकटास्यः स्याद् वामस्तेन महीतलम् प्रास्फोटितं स्फुटं यत्र तदास्कन्दितमीरितम् ॥१४८२॥ 1681