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नश्याध्यायः
वामोऽथ स्पन्दितीभूय विधत्ते स्फोटनं भुवः ।
दक्षिणो यदि पादः स्यादडितं मण्डलं तदा ॥१४७२॥ 1569 दाहिना पैर क्रमश: उद्घटिता बद्धा, समोत्सरितमत्तहिल, अर्धमत्तरिल तथा अपक्रान्ता नामक चारियों से युक्त हो और बायाँ पैर क्रमशः उवृत्ता, विद्यभ्रमाता, भ्रमरी तथा स्पन्दिता से यवत हो; फिर दाहिना पर शकटास्या तथा चाषगति से युक्त होकर दो बार प्रयुक्त हो और बायाँ पैर क्रमश: अडिडता तथा अध्यधिका से युक्त हो; फिर दाहिना पैर चापगति से युक्त हो तथा बायाँ पैर क्रमशः समोत्सारितमत्तहिल, मत्तल्लि तथा भ्रमरी से युक्त हो और दाहिना पैर स्पन्दिता से युक्त होकर पृथ्वी पर चोट करे; तो अड्डिता भूमिमण्डल होता है। ५. समोत्तरित
समपादं समाश्रित्य सम्प्रसार्य करौ ततः । निरन्तरौ विधायो वावेष्ट योद्वेष्ट्य च क्रमात् ॥१४७३॥ 1570 न्यस्येत् कटीतटेऽथाङ्ग्री भ्रामयेत् सव्यवामको । क्रमादथ पुरो वाममध्रि यत्र प्रसारयेत् ॥१४७४॥ 1571 एवं भ्रान्त्वा चतुर्दिक्षु मण्डलभ्रमणं क्रमात् ।
समोत्सरितमेतत् स्यात् मण्डलं शिवशङ्करम् ॥१४७५॥ 1572 सम स्थिति पैर का आथय लेकर दोनों हाथों को फैलाकर तथा सटाकर ऊपर करके क्रमश: आवेष्टित तथा उद्वेष्टित करके कटि पर रख दिया जाय ; अनन्तर दाहिने और वायें पैरों को क्रमशः घुमाकर बायें पैर को आगे फैला दिया जाय; इस प्रकार चारों दिशाओं में मण्डलाकार घुमाने से समोत्सरित भूमिमण्डल बनता है, जो शंकर को प्रिय है।
६. आवर्त
1573
[दक्षिणो जनितो वामः स्थितावर्तस्ततः परम् । शकटास्यो भवेत् पश्चादेडकाक्रीडितायः] । ऊरूवृत्तोऽड्डितः पश्चाच्चारी स्याज्जनिताभिधा।
समोत्सरितमत्तल्लिः क्रमात् पादस्तु दक्षिणः ॥१४७६॥ 1574 १. देखिए : संगीतरत्नाकर, अध्याय ७, श्लोक ११५४, (आडियार संरकरण ) ।
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