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नस्याध्यायः
दाहिना अपक्रान्ता से युक्त हो और बायाँ अतिक्रान्ता से यक्त होकर सून्दर ढंग से संचरण करे; तो उसे विद्वानों ने ललित आकाशमण्डल बताया है । १०. दण्डपाद
जनितो दण्डपादश्च दक्षिणोऽङ्घ्रिः क्रमात् ततः । सूची स्याद् भ्रमरश्चान्योऽथोद्वत्तो दक्षिणस्ततः ॥१४५६॥ 1555 वामोऽलातोऽथ चरणः पार्श्वक्रान्तस्तु दक्षिणः । भुजङ्गत्रासितोऽप्येष ततोऽतिक्रान्ततः गतः ॥१४६०॥ 1556 वामोऽथ दण्डपादस्तु सूची चान्यस्ततो यदा।
वामः स्याद् भ्रमरो यत्र दण्डपादमिदं तदा ॥१४६१॥ 1557 दाहिना पैर क्रमश: जनिता, दण्डपादा तथा सूची नामक चारियों से युक्त हो, बायाँ पैर भ्रमरी से यक्त हो; फिर दाहिना पैर उद्वत्ता से युक्त और बायाँ पैर अलाता से युक्त हो; पुनः दाहिना पैर पार्श्वमान्ता, भुजंगत्रासिता तथा अतिक्रान्ता से युक्त हो, और बायाँ पैर दण्डपादा से युक्त हो; पुनः दाहिना पैर सची से युक्त हो, और बायाँ पैर भ्रमरी से युक्त हो; तो दण्डपाद आकाशमण्डल होता है।
दस भूमिगत मण्डल (२) , १. समर
दक्षिणो जनितोऽथाघ्रिामः स्यात् स्पन्दितस्ततः । दक्षिणः शकटास्योऽथ वामोऽपि स्पन्दितोऽथवा ॥१४६२॥ 1658 दक्षिणो भ्रमरः पादः स्याद् वामः स्पन्दितस्ततः । दक्षिणः शकटास्यः स्याद् वामश्चाषगतो भवेत् ॥१४६३॥ 1559 परस्तु भ्रमरोऽथाङ्घ्रिाम स्यात् स्पन्दितो यदि ।
तदोक्तं भ्रमरं धीरैर्मण्डलं शिववल्लभम् ॥१४६४॥ 1560 दाहिना पैर जनिता नामक चारी से युक्त और बायाँ पैर स्पन्दिता से युक्त हो; फिर दाहिना शकटास्या से तथा बायाँ स्पन्दिता से युक्त हो; पुनः दाहिना भमरी से युक्त हो, बाँया स्पन्दिता से युक्त हो; फिर दाहिना शकटास्या से युक्त और बायाँ चाषगति से युक्त हो; तत्पश्चात् दाहिना भ्रमरी से युक्त और बाँया स्पन्विता से युक्त हो; तो धीर पुरुषों ने उसे भमरी भूमिमण्डल कहा है, जो शंकर को प्रिय है।
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