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नत्याध्यायः
६. अलात
कुर्याद्वामाघ्रिणा सूची भ्रमरी दक्षिणाघ्रिणा । 1540 भुजङ्गात्रासितां चारीमलातामपराज्रिणा ॥१४४६॥ षड्वारमथवा सप्तकृत्वः कृत्वा क्रमादिमाः । 1541 क्षिप्रं भ्रान्त्वा चतुदिक्षु समन्तान्मण्डलाकृतिः ॥१४४७॥ अपक्रान्तां दक्षिणेन वामेन त्वघ्रिणा यदा । 1542 अतिक्रान्ताभ्रमरिके विधत्ते ललितः क्रमैः ।
तदालातं मण्डलं स्यात्सदा शङ्करशङ्करम् ॥१४४६॥ 1543 बायें पैर से सची तथा भमरी नामक चारियों को तथा दाहिने पैर से भजंगत्रासिता नामक चारी को और फिर बायें पैर से अलाता नामक चारी को छह बार या सात बार क्रमश: करके चारों दिशाओं में मण्डलाकार में शीघ्रतापूर्वक घुमाकर दाहिने पैर से अपक्रान्ता नामक चारी को और बायें पैर से अतिक्रान्ता एवं भ्रमरिका नामक चारियों को सुन्दर ढंग से करने पर अलात नामक आकाशमण्डल बनता है, जो सदा शंकर को प्रिय है। ७. विचित्र
जनितो दक्षिणोऽध्रिः स्यादूरूवृत्तोऽपि विच्यवः । अथ सप्तस्थितावर्तोव्यावर्तोदितभेदवान् ॥१४४६॥ 1544 वामोऽध्रिः स्पन्दितोऽथ स्यात् पार्श्वक्रान्तस्तु दक्षिणः ।। भुजङ्गत्रासितोऽन्यः स्यादतिक्रान्तस्तु दक्षिणः ॥१४५०॥ 1545 उद्वत्तकोऽप्यसौ वामस्त्वलातो दक्षिणः पुनः । पार्श्वक्रान्तोऽथ सूच्यज्रिर्वामो विक्षिप्य दक्षिणम् । 1546
अपक्रान्तो भवेद् वामो यत्र तत् स्याद् विचित्रकम् ॥१४५१॥ दाहिना पैर जनिता, ऊरूदवत्ता, विच्यवा, सात स्थितावर्ता और दो आवर्ता चारियों के भेद से युक्त हों; बायाँ पैर स्पन्दिता चारी से यक्त हो, दाहिना पैर पावक्रान्ता चारी से यक्त हो; फिर बायाँ पैर भजगत्रासिता से युक्त हो; दाहिना पैर अतिक्रान्ता से युक्त हो, बायाँ पैर उदवत्ता से यक्त हो; पूनः दाहिना पैर अलाता से युक्त हो; फिर बायाँ पैर पावक्रान्ता से युक्त हो; तो विचित्र आकाशमण्डल होता है।