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मण्डलों का निरूपण
दाहिना पैर सूची करण हो और बायाँ अपक्रान्त करण हो; फिर दाहिना पैर पार्श्वक्रान्त हो और बायाँ पैर चारों ओर मण्डलाकार में घुमाया जाय; फिर बायाँ पैर सूची हो और दाहिना पैर अपक्रान्त हो; तो इस क्रिया को भरत आदि मुनियों ने क्रान्त आकाशमण्डल कहा । इसका विनियोग स्वाभाविक चाल के अभिनय में किया जाता है ।
४. ललितसञ्चर
ऊर्ध्वजानुस्ततः सूची दक्षिणोऽङ्घ्रिः क्रमात् ततः । अपक्रान्तोऽपरः पार्श्वक्रान्तः स्याद् दक्षिणस्ततः ॥१४४०॥ सूची भ्रमरको वामः क्रमादङ्घ्रिस्तु दक्षिणः । पार्श्वकान्तस्ततो वामोऽतिक्रान्तो दक्षिणः पुनः ॥ १४४१ ॥ सूची वामोऽप्यपक्रान्तः पार्श्वक्रान्तश्च दक्षिणः । प्रतित्रान्तस्तु वामोऽङ्घ्री द्वौ छिन्नकरणाश्रयौ ॥१४४२॥ वामाङ् घ्रिनिर्मिता बाह्यभ्रमर्यन्ते यदा तदा । सञ्चरं ललिताद्यं स्यान्मण्डलं शिववल्लभम् ॥१४४३॥ दाहिना पैर क्रमशः ऊर्ध्वजानु तथा सूची करण बना हो और बायाँ पैर अपक्रान्त बना हो; तदनन्तर दाहिना पैर पार्श्वकान्त और बायाँ पैर क्रमशः सूची तथा भ्रमर बना हो; फिर दाहिना पैर पार्श्वक्रान्त और बायाँ अतित हो; पुनः दाहिना पैर सूची तथा बायाँ पैर अवक्रान्त हो; फिर दाहिना पैर पार्श्वक्रान्त और बायाँ पैर अतिक्रान्त हो; दोनों पैर छिन्न करण का आश्रय लिये हुए हों; अन्त में बायें पैर से बाहर भ्रमरी नामक 'चारी बनायी जाय; तो ललितसञ्चर आकाशमण्डल बनता है, जो शंकर को प्रिय है ।
५. सूचीविद्ध
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दक्षिणे यत्र सूची स्याद् भ्रमरोऽप्यथ जायते । पार्श्वक्रान्तस्ततो वामोऽतिक्रान्तश्चरणः परः || १४४४ ॥ सूची स्यादथ वामोऽङ्घ्रिरपक्रान्तः स्वरूपधृक् । पार्श्वक्रान्तोऽपरस्तद्धि सूचीविद्ध प्रकीर्तितम् ॥१४४५॥
जहाँ दाहिना पैर सूची तथा भ्रमर मुद्रा में हो और बायाँ पैर पार्श्वक्रान्त हो; फिर दाहिना पैर अतिक्रान्त तथा सूची में हो और बायाँ पैर अपक्रान्त का स्वरूप धारण किये हुए हो; पुनः दाहिना पैर पाश्वंक्रान्त हो; तो सूचीविद्ध आकाशमण्डल बनता है ।
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