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मण्डलों का निरूपण
अथातिक्रान्तको वामो दण्डपादः परस्तदा ।
तन्मण्डलमतिकान्तं समवोचन् विचक्षणाः ॥१४३४॥ 1521 . दाहिना पैर जनित तथा शकटास्य करणों में अवस्थित हो और बायाँ पैर अलात करण बना हो; फिर दाहिना पैर पार्वकान्त तथा बायाँ पैर सूची और भ्रमर बना हो; पुनः दाहिना पैर उबृत्त और बायाँ पैर अलात हो; दोनों चरण छिन्नकरण का सहारा लिये हों; तदनन्तर वाम अंग में भ्रमरी नामक चारी की रचना की जाय; फिर बायाँ पर अतिकान्त करण और दाहिना पैर दण्डपाद बनाया जाय; तो ऐसी क्रिया को विद्वानों ने अतिक्रान्त आकाशमण्डल कहा है।
[च'मत्काराय चारीणामानुपूर्येण या क्रिया ।
तन्मण्डलमिति प्रोक्तमखण्डमतिशालिभिः । 1622 चमत्कार उत्पन्न करने के लिए चारियों को क्रमशः क्रियान्वित करना ही मण्डल कहलाता है, ऐसा विद्वानों का मत है।
भौममाकाशिकं चेति तत्पुद्विविधं भवेत् । प्राचुर्याद्भौमचारीणां भौममण्डलमुच्यते । 1523 आकाशचारी बाहुल्यादाकाशिकमिति स्मृतम् ।
भौमाकाशिकभेदानामुद्देशोऽत्र विधीयते ।। 1524 फिर उस मण्डल के दो भेद हैं : १. भौम और २. आकाशिक । अधिकता के कारण भौम चारियों को भौममण्डल और आकाशचारियों को आकाशिकमण्डल कहा गया है। यहाँ भौम और आकाशिक नाम-भेद से उद्देश्य का विधान किया गया है।
भ्रमरं च तदावर्तमास्कन्दितमथाडितम् । । समोत्सरितमत्यर्धमेलकाक्रीडितं तथा । शकटास्यं पिष्टकुष्टं ततश्वाषगताभिधम् ।
भौमानि मण्डलानीति दशोद्दिष्टान्यनुक्रमात् । 1526 भौम मण्डल के क्रमशः दस नाम बताये गये हैं : १. भामर, २. आवर्त, ३. आस्कन्दित, ४. अड्डित, ५. समोत्सरित, ६. अत्यर्ष, ७. एलकाक्रीडित,८. शकटास्य, ९ पिष्टकट्ट और १०. चाषगत ।
१. देखिए : अशोक-भरतकोश, १०४५४ ।
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