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अंगहारों का निरूपण रेचकाद्यं निकुटं च करणं ललिताभिधम् । 1483 वैशाखरेचितं [पश्चात् चतुरं दण्डरेचितम्] ॥१३६६॥ वृश्चिकाचं कुट्टितं च ततः पार्श्वनिकुट्टकम् । 1484 सम्भ्रान्तोद्घट्टिताख्योरोमण्डलानि ततः परम् ॥१४००॥ करिहस्तकटिच्छिन्ने यत्रतानि क्रमादसौ । 1485
भवेदनिकुट्टाख्यस्त्वङ्गहारः शिवप्रियः ॥१४०१॥ पहले नूपुर करण, पश्चात् निकुट, अर्धनिकुट्ट, अपरेचित, रेचकनिकुट, ललित, वैशाखरेचित, चतुर, दण्डरेचित, वृश्चिककुट्टित, पार्शनिकुट्टक, संभ्रान्त, उद्घट्टित, उरोमण्डल, करिहरत और कटिच्छिन्न--ये करण क्रमशः, शंकर के प्रिय, अर्बनिकुट्ट नामक अंगहार में प्रयुक्त होते हैं । १०. परिवृत्तरेचित
नितम्बं स्वस्तिकाद्यं तु रेचितं तदनन्तरम् । 1486 विक्षिप्ताक्षिप्तकं चाथ लतावृश्चिकसंज्ञकम् ॥१४०२॥ उन्मत्तकरिहस्ते च भुजङ्गत्रासितं ततः । 1487 आक्षिप्तं करिहस्तं च नितम्बं च नवेत्यथ ॥१४०३॥ भ्रमरेण सहेमानि परिवत्त्याश्रयेत् ततः ।
1488 स्थित्वा दिगन्तरास्यस्तु व्याव]तरयोदिशोः ॥१४०४॥ करिहस्तं कटिच्छिन्नं विदध्यात् पूर्वदिक् स्थितः । 1489 यत्रासो परिवृत्ताद्यो रेचितः परिकीर्तितः ॥१४०५॥ गङ्गावतरणं त्यक्त्वा तथा नागापसर्पितम् ।
1490 परिवृत्तविधिज्ञेयः सर्वत्रैवाङ्गहारकैः ॥१४०६॥ नितम्ब, स्वस्तिकरेचित, विक्षिप्त, आक्षिप्त, लतावृश्चिक, उन्मत्त, करिहस्त, भुजंगत्रासित, आक्षिप्त, करिहरत और नितम्ब-इन करणों को भ्रमर के साथ घुमाकर अन्य दिशा में मख करके अवस्थित हो; फिर अन्य दो दिशाओं में घूमकर पूर्व दिशा में खड़ा होकर करिहस्त एवं कटिच्छिन्न करणों की रचना करे; ऐसा करने से परिवृत्तरेचित अंगहार बनता है। गंगावतरण और नागापपित नामक करणों को छोड़कर सर्वत्र अंगहार करने वालों को परिवत्त का प्रकार जान लेना चाहिए ।
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