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नृत्याध्यायः
११. स्वस्तिकरेचित
वैशाखरेचितं पूर्व वृश्चिकं चाथ तद् द्वयम् । 1491 सव्यसव्येतराङ्गाभ्यां निकुटुं सलताकरम् ॥१४०७॥ तुर्य यत्र कटीच्छिन्नमसौ स्वस्तिकरेचितः । 1402 अभ्यासादाद्ययोरत्र करणानि भवन्ति षट् ।
स्वस्तिकापसृत केचिदिममेव प्रचक्षते ॥१४०८॥ 1493 पहले वैशाखरेचित, पश्चात् वृश्चिक, अनन्तर दाहिने-बायें अंगों से लताकर हाथ के साथ निकट और चौथे कटीच्छन्न नामक करणों के करने से स्वस्तिकरेचित अंगहार बनता है। यहाँ वैशाखरेचित और वृश्चिक को दोहरा देने से छह करण हो जाते हैं। कोई आचार्य इसी अंगहार को स्वस्तिकापसत कहते हैं। १२. विष्कम्भापसृत
निकुट्टाधुनिकुट्टे द्वे कृत्वा पार्श्वद्वयेन चेत् । भुजङ्गत्रासितं कुर्याद् भुजङ्गत्रस्तरेचितम् ॥१४०६॥ 1494 प्राक्षिप्तकमुरःपूर्व मण्डलं च लताकरौं ।
सप्तमं तु कटीच्छिन्नं विष्कम्भापसृतस्तदा ॥१४१०॥ 1495 दोनों पार्श्व से निझुट तथा अर्बनिकुट्ट नामक करणों को करके भुजंगत्रासित, भजंगवस्तरेचित, आक्षिप्त, उरोमण्डल, दोनों लताकर नामक हाथ और सातवें कटीच्छिन्न नामक करण के करने से विष्कम्भापसत अंगहार बनता है। १३. विष्कम्भक
निकुट्टकं विधायाथ निकुश्चितमथाञ्चितम् । ऊरूवृत्तकमप्यर्धनिकुट्ट तदनन्तरम् ॥१४११॥ 1496 भुजङ्गत्रासितं पाणिमुद्वेष्ट्य भ्रमरं ततः ।
करिहस्तकटीच्छिन्ने कुर्याद् विष्कम्भकस्तु सः ॥१४१२॥ 1497 निकुट्टक करण को करने के पश्चात् अञ्चित, ऊरूद्वत्त, अर्धनिकट और भुजंगत्रासित करणों की रचना की जाय; अनन्तर एक हाथ को उद्वेष्टित करके भ्रमर करिहस्त तथा कटीच्छिन्न करणों को बनाया जाय, तो विष्कम्भक अंगहार होता है ।