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नृत्याध्यायः
योज्यं करणमेकैकमिति तज्ज्ञाः [प्रचक्ष] ते । 1504 अङ्गेषु पूर्वरङ्गस्य तथा चोत्थापनादिषु ॥१४१८॥ . मृदङ्गप्रमुखैर्वाद्यैर्लयतालानुगामिभिः
1505 वर्धमानासारितेषु पाणिकागीतिकादिषु ॥१४१६॥ पुरुषरङ्गहारास्ते परं श्रेयोऽभिकाक्षिभिः । 1506
प्रयोक्तव्याः शिवस्याग्ने यथाविधि मनीषिभिः ॥१४२०॥ अंगहार मुख्य भाव से दृष्टफल (जिनके परिणाम देखे गये हों), अदृष्टफल (जिनके परिणाम देखे न गये हों) और दष्टनियोग (जिनकी प्रवृत्ति देखी गई हो) होते हैं। सभी जगह अंगहरों में गुरुरूप कला के द्वारा एक-एक करण की योजना करनी चाहिए, ऐसा उसके विशेषज्ञ कहते हैं । कल्याण चाहने वाले मनीषी पुरुष लय और ताल का अनुगमन करने वाले मृदंग आदि वाद्यों के द्वारा वर्धमान, आसानित और पाणिका गीत आदि के अवसर पर शंकर के आगे उन अंगहारों का विधिपूर्वक प्रयोग करें।
बत्तीस अंगहारों का निरूपण समाप्त ।
चार प्रकार के रेचकों का निरूपण अथाहं रेचकान् वक्ष्ये चतुरान् मुनिसम्मतान् ।
1507 पाणिकण्ठक्टीपादविशेषेणसमुद्भवान् ॥१४२१॥ अब, भरत मुनि के अभीष्ट हस्त, कण्ठ, कटि और पाद विशेष से उत्पन्न चार प्रकार के रेचकों का निरूपण किया जाता है। १. पाणिरेचक
त्वरया परितो भ्रान्ति यदा स्याद्धंसपक्षयोः । 1508 पर्यायेण तदा धीरैरादिष्टः । पाणिरेचकः ॥१४२२॥ अथवा स्यादसौ पाणेविरलप्रसृताङ्गुलेः । 1509
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