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मत्याध्याया
निकट, उरोमण्डल, नितम्ब, करिहस्त और कटीच्छिन्न--इन पांच करणों को क्रमशः करने से उद्घटित अंगहार बनता है। ७. अलात स्वस्तिकं करणं पूर्वमथ द्विव्यंसितं ततः ।
1476 अलातं चोर्ध्व जानु स्यान्निकुञ्चितमतः परम् ॥१३६३॥ अर्धसूच्यथ विक्षिप्तोवृत्तकाक्षिप्तकानि च ।
1477 करिहस्तं कटोच्छिन्नं भवन्त्येतान्यलातके ।
एकादश तथाभ्यासगणने व्यंसितेऽधिकम् ॥१३६४॥ 1478 पहले स्वस्तिक करण, पश्चात् दो व्यंसित, अलात, ऊर्ध्वजान, निकुञ्चित, अर्धसूचि, विक्षिप्त, उदृत्त, आक्षिप्त, करिहस्त और कटीच्छिन्न--ये ग्यारह करण क्रमश: अलात अंगहार में प्रयुक्त होते हैं । यहाँ व्यंसित को दो बार दोहरा देने से करणों की संख्या एक अधिक अर्थात बारह हो जाती है। ८. सम्धान्त
विक्षिप्ताञ्चितके दण्डपूर्व सूचि ततः परम् । गङ्गावतरणं चाथ सूच्यथो दण्डपादकम् ॥१३६५॥ 1479 वामाङ्गरचितं पश्चाच्चतुरं भ्रमरं ततः । नपुराक्षिप्तके चार्धस्वस्तिकं च नितम्बकम् ॥१३६६॥ 1480 करिहस्तमुरः पूर्व मण्डलं कटिपूर्वकम् । छिन्नं चेति क्रमादेभिः पञ्चाद्यैर्दशभिर्मतः । 1481
सम्भ्रान्तनामको धीरैरङ्गहारो हरप्रियः ॥१३९७॥ विक्षिप्त, अञ्चित. दण्डसचि. गंगावरण, सचि. दण्डपाद, वाम अंग में रचे जायँ; तत्पश्चात चतर भ्रमर नपुर, आक्षिप्त, अर्धस्वस्तिक, नितम्ब, करिहस्त, उरोमण्डल और कटिच्छिन्न--इन पन्द्रह करणों को क्रमश: प्रयुक्त किया जाय, तो सम्भ्रान्त अंगहार बनता है, जो शंकर को प्रिय है। ९. अर्धनिकुट्ट
नूपुरं करणं पूर्व विवृत्तं तदनन्तरम् । 1482 निकुट्टार्धनिकुट्टाधरेचितानि ततः परम् ॥१३६८॥
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