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अंगहारों का निरूपण
ये वक्षःस्वस्तिककटीच्छिन्ने नेच्छन्ति सूरयः ।
तन्मतेऽपि तदभ्यासात् पञ्चविंशतिभिर्भवेत् ॥१३८८॥ 1471 पहले चतुरता से स्वरितकरेचित की रचना की जाय; उसके बाद पृष्ठस्वस्तिक, विस्वस्तिक, कटीरिछन, धूणित, भ्रमर, वृश्चिकरेचित, पार्शनिकुट्टक, उरोमण्डल, सन्नत, सिंहाकर्षित, नागापसर्पित, वक्षःस्वस्तिक, दण्डपक्ष, ललाटतिलक, निम्भित, विधुभ्रान्त, गजकोडित, नितम्ब, विष्णुकान्त, ऊरूवृत्त, आक्षिप्त, ऊरोमण्डल, नितम्ब, करिहस्त और कटीरिछन्न अथवा उसके बिना भी--इन पचीस करणों से आक्षिप्तरेचित अंगहार बनता है। किन्तु यह पचीस संख्या तब होगी जब नितम्ब तथा रोमण्डल को दोहराया नहीं जाएगा। इनको दोहरा देने से करणों की संख्या सत्ताईस हो जाती है। जो विद्वान् वक्षःस्वस्तिक तथा कटीच्छिन्न करणों को यहाँ नहीं चाहते हैं, उनके मत में भी उक्त दोनों करणों को दोहरा देने से पच्चीस संख्या हो जाती है।
५. उवृत्त
विधाय नूपुरं यत्र भुजङ्गाञ्चितकं ततः । गृध्रावलीनकं पश्चाद्विक्षिप्तोवृत्तके तथा ॥१३८६॥ 1472 एकाङ्गेन ततः कुर्यादूरुवृत्तं नितम्बकम् । लताद्यं वृश्चिकं चाथ कटीच्छिन्नमिति क्रमात् ॥१३६०॥ 1473 नवभिः करणरेभिरुवृत्तोऽसौ मतो बुधः ।
विक्षिप्तोवृत्तयोरेषोऽभ्यासेन द्वयधिको भवेत् ॥१३६१॥ 1474 पहले नूपुर करण करके भुजंगाञ्चित, गृधावलीनक, विक्षिप्त तथा उद्वृत्त करणों की रचना की जाय; फिर एक अंग से ऊरूवृत्त, नितम्ब, लतावृश्चिक और कटीच्छिन्न---इन नौ करणों को क्रमशः किया जाय, तो उद्धृत अंगहार बनता है। यहाँ विक्षिप्त और उद्वत्त करणों को दोहरा देने से दो अधिक करण हो जाते हैं।
६. उद्घटित
निकुटं करणं पश्चादुरोमण्डलसंज्ञकम् । नितम्बकरिहस्ते च कटोच्छिन्नमिति क्रमात् । पञ्चभिः करणरेभिरुद्घट्टित उवीरितः ॥१३६२॥
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