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अंगारों का निरूपण
पहले अपक्रान्त और व्यंसित हाथों की रचना की जाय; तत्पश्चात् करिहस्त, अर्धसूचि, विक्षिप्तक, कटिच्छि ऊरूद्धृत और आक्षिप्त को किया जाय पुनः करिहस्त तथा कटिच्छिन्न करण धारण किया जाय; तो अपरूपक अंगहार होता है। करिहस्त और कटिच्छिन्न को दोहरा देने से यहाँ करणों की संख्या नौ (? दस ) हो जाती है ।
१२. आक्षिप्त
नूपुरं उरोमण्डलकं टिच्छिन्नमपि
जहाँ नूपुर, विक्षिप्त, अलात, क्षिप्तक, उरोमण्डल, नितम्ब, करिहस्त और कटिच्छिन्न करणों की क्रमशः रचना
की जाय, वहाँ विद्वानों ने आक्षिप्त अंगहार बताया है ।
१३. आच्छुरित
यत्र
विक्षिप्तमलातक्षिप्त के ततः ।
चाथ नितम्बं करिहस्तकम् । ज्ञेयोऽमीभिराक्षिप्तको बुधैः ॥ १३६२ ॥
नूपुरं भ्रमरं चाथ व्यंसितं तदनन्तरम् । अलातकं नितम्बं च सूच्यथो करिहस्तकम् ।
कटिच्छिन्नं चाङ्गहारोऽमीभिराच्छुरिताभिधः ॥१३६३॥ 1443
नूपुर, भ्रमर, व्यंसित, अलात, नितम्ब, सूचि, करिहस्त तथा कटिच्छिन्न नामक करणों की क्रमशः रचना से आच्छुरित अंगहार बनता है ।
१४. आलीढ़
पार्श्वयुग्मेन भुजङ्गत्रासितोन्मत्ते
1441
विधाय व्यंसितं वामे निकुटं नूपुरं यदा । श्रन्यतोऽलातमाक्षिप्तमुरोमण्डलकं तथा । करिहस्त टिच्छिन्ने कुर्यादालीढकस्तदा ॥ १३६४॥
जब वाम भाग में व्यंसित, निकुट्ट तथा नूपुर नामक करण किये जाते हैं और दक्षिण भाग में अलात, आक्षिप्त, उरोमण्डलक, करिहस्त और कटिच्छिन्न नामक करण रचे जाते हैं, तब आलोढ़ अंगहार बनता है । १५. वंशाखरेचित
वैशाखरेचितं
यत्र नूपुरम् । मण्डलस्वस्तिकं
ततः ॥ १३६५॥
1442
1444
1445
३५.३