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नृत्याध्यायः
निकुट्टोरूवृत्त केचित्क्षिप्तोरोमण्डले
ततः ।
करिहस्तं कटिच्छिन्नमित्येभिर्दशभिः क्रमात् । वैशाखरेचितोऽसौ
स्यादङ्गहारो
जहाँ दोनों पावों में क्रमश: वैशाखरेचित, नूपुर, भुजंगत्रासित, उन्मत्त, मण्डलस्वस्तिक, निकट, ऊरूवृत्त, रोमण्डल, करिहस्त और कटिच्छिन्न- इन दश करणों की रचना की जाय, वहाँ वैशाखरेचित अंगहार बनता है, जो शंकर को प्रिय हैं ।
१६. पार्श्वस्वरितक
१. अपविद्ध
दिवस्वस्तिकमथैकेन farrafस्तकं
1446
हरप्रियः || १३६६ || 1447
गात्रेणार्धनिकुट्टकम् ।
पुनरथान्याङ्गनार्धनिकुट्टकम् ॥ १३६७॥ 1448 ततोऽपविद्धोरूवृत्ताक्षिप्तकानि नितम्बकम् । करिहस्तकटीछिन्नैः करणेरष्टभिः क्रमात् । एभिः स्यादङ्गहारोऽयं पार्श्वस्वस्तिकसंज्ञकः ॥ १३६८ ॥
एक अंग से दिक्स्वस्तिक, अर्धनिकुट्टक, पुनः दिक्स्वस्तिक; फिर अन्य अंग से अर्धनिकुट्टक, तदनन्तर अद्धि, रू., आक्षिप्त, नितम्ब, करिहरत तथा कटिच्छिन्न- क्रमश: इन आठ करणों की रचना की जाय, तो वहाँ पार्श्वस्वस्तिक अंगहार सम्पन्न होता है ।
यत्र मान में सोलह अंगहार ( २ )
श्रपविद्धं ततः सूचीविद्धमुद्वेष्टिते करे । चार्या बद्धाख्यया सार्धं भ्रामयेत् चेत् त्रिकं ततः ॥१३६६॥ ऊरूवृत्तमुरः पूर्वं मण्डलं च ततः परम् ।
कटीच्छिन्नमपविद्धस्तदोदितः ॥ १३७० ॥
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1450
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पञ्चमं तु
यदि उद्वेष्टित हाथ में अपविद्ध तथा सूचीविद्ध करणों को रचकर बद्धा नामक चारी के साथ कटिदेश को घुमाया जाय; उसके बाद ऊरूद्वत्त, उरोमण्डल तथा पाँचवे कटीच्छिन्न करण की रचना की जाय; तो वहाँ अपविद्ध अंगहार बनता है ।
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