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नृत्याध्यायः
सम्पन्न करे; इन छह करणों से विद्यभ्रान्त अंगहार बनता है। यहाँ प्रारंभ के दो करणों को दुहरा देने से गणना में आठ करण होते हैं। ९. परिच्छिन्न
कृत्वा समनखं यत्र छिन्नं सम्भ्रान्तके ततः । वामाने भ्रमरं चार्धसूचि चेद् रचयेत् ततः ॥१३५५॥ 1434 अतिक्रान्तं भुजङ्गाद्यं त्रासितं करिहस्तकम् ।
कटिच्छिन्नं च कुर्यात् स परिच्छिन्नस्तदा मतः ॥१३५६॥ 1435 जहाँ समनख करण को करके छिन्न तथा संभ्रान्तक की रचना की जाय; वाम अंग में भ्रमर तथा अर्धसूचि को बनावे और पश्चात् अतिक्रान्त, भुजंगत्रासित, करिहस्त और कटिच्छिन्न का निर्माण किया जाय, तो परिच्छिन्न अंगहार बनता है। १०. पावच्छेद
कुट्टितं वृश्चिकाद्यं चेर्वजानु च नूपुरम् । पाक्षिप्तस्वस्तिकं कृत्वा परिवृत्ति त्रिकस्य च ॥१३५७॥ 1436 उरोमण्डलकं पश्चात् नितम्बकरिहस्तके ।
कटिच्छिन्नं च रचयेत् पार्श्वच्छेदस्तदा मतः ॥१३५८॥ 1437 पहले कुट्टित, वृश्चिक, ऊर्ध्वजानु, नूपुर और आक्षिप्तस्वस्तिक करणों को करके कटिभाग को घुमाकर पश्चात् उरोमण्डल, नितम्ब, करिहस्त तथा कटिच्छिन्न करणों की रचना की जाय, तो पावच्छेद अंगहार बनता है। ११. अपसपित
अपक्रान्तं व्यंसितं च पाण्योरेवं यदा क्रिया । करिहस्तकमर्धाचं सूचि विक्षिप्तकं ततः ॥१३५६॥ 1438 कटिच्छिन्नं च करणमुरुद्वृत्तमतः परम् । प्राक्षिप्तं करि[हस्तं च कटिच्छिन्नं पुनस्तदा ॥१३६०॥ 1439 सप्तभिः करणैरेभिरपसपितको मतः । अन्त्यद्विकरणाभ्यासगणने नवभिर्मतः ॥१३६१॥ 1440
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