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नृत्तकरण प्रकरणं
प्रार्थनायामपि
नृपाशोकमल्लेन
धीमता ॥ १२९४ ॥ 1338
नृपति अशोकमल्ल के मत से ईर्ष्या, प्रणय- कोप और प्रार्थना के अभिनय में ऊबुत करण का विनियोग होता है ।
१०२. अञ्चित और उसका विनियोग
- ईर्ष्याप्रणयकोपयोः ।
नासिकाक्षेत्रसंश्रितः । करिहस्तो यदा धत्तेऽलपद्मत्वं तदाश्चितम् ।
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यदि करिहस्त हाथ व्यावृत्त-परिवृत्त द्वारा ( अर्थात् घुमाकर तथा मोड़कर) नासिका स्थान पर पहुँच कर अलपद्महस्त का स्वरूप धारण कर लेता है, तो उसे अञ्चित करण कहते हैं ।
व्यावृत्तिपरिवृत्तिभ्यां
श्रात्मनः कौतुकादेतत् सम्मुस्यावलोकने ॥ १२५॥
जब कोई नर्तकी अन्य नर्तकी के सामने अपने कौतुकवश ताकती है, तब उस अभिनय में अञ्चित करण का विनियोग होता है । (अथवा अपने कौतुकवश सामने ताकने के आशय में उसका विनियोग होता है ) १०३. सम्भ्रान्त और उसका विनियोग
विधायाविद्धचारों चेव्यावर्त्य परिवृत्तितः । स्थापयेदूरुपृष्ठके ।
श्रलपद्माभिधं
पाणि सम्भ्रान्तमादिष्टम् -
तदा
यदि अविद्धा चारी की रचना करके अलपद्म हस्त को चारों ओर घुमाकर ऊरु के पृष्ठ भाग पर रख दिया जाय, तो उसे सम्भ्रान्त करण कहते हैं ।
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भयपूर्ण या घबराहट युक्त की गति के अभिनय में सम्भ्रान्त करण का विनियोग होता है । १०४. मदस्खलित और उसका विनियोग
- ससाध्वसपरिक्रमे ॥ १२६॥ 1341
1340
स्वस्तिकीभूय यत्राङ्घ्री क्रमेणैवापसर्पतः । परिवाहित संज्ञं च शिरो दोलाभिधौ करौ । इदं मदस्खलितकं कथितम्
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यदि दोनों पैर स्वस्तिक मुद्रा में क्रमशः पीछे की ओर हटते जांय, शिर परिवाहित में और दोनों हाथ डोला में हों, उसे मदस्खलित करण कहते हैं ।
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