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अंगहारों का निरूपण
एककं करणं कार्य कलया गुरुरूपया। 1413
सर्वेषामङ्गहाराणामित्याह करणाग्रणीः । गरु रूप कला के क्रम से सभी अंगहारों के एक-एक करण का निर्माण करना चाहिए, यह करणों के विशेषज्ञों का अभिमत है। १. स्थिरहस्त
चतुरस्र मान में सोलह अंगहार (१) लीनं समनखं कृत्वा व्यंसितं चात्र विच्युतौ । 1414 करौ कृत्वौज्झितालीढः प्रत्यालीढं व्रजेत्ततः । निकुट्टकोरूवृत्ताख्यस्वस्तिकाक्षिप्तकान्यथ ।
1415 नितम्बं करिहस्तं च कटीच्छिन्नमिति क्रमात् । करणः स्थिरहस्तः स्याद्दशभिः शिववल्लभः । 1416 अङ्गहारेषु सर्वेषु प्रत्यालीढान्तमादितः ।
प्रयोक्तव्यमिति प्राहुः केचिन्नाट्यविशारदाः । 1417 १. लोन, २. समनख, तथा ३. व्यंसित करणों को करके दोनों हाथों को अलग-अलग करे; फिर आलीढ नामक स्थानक को छोड़कर प्रत्यालीढ नामक स्थानक को प्राप्त करे; अनन्तर ४. निकुट्टक, ५.ऊरूवत्त ६. स्वस्तिक, ७. आक्षिप्त, ८. नितम्ब, ९. करिहस्त और १०. कटीच्छिन्न--कुल दस करणों को क्रमश: करने से स्थिरहस्त अंगहार बनता है, जो शिव को प्रिय है। कोई नाट्य-पण्डित कहते हैं कि सभी अंगहारों में आदि से प्रत्यालीढ तक सभी करणों का प्रयोग करना चाहिए । २. पर्यस्तक
तलपुष्पपुटं पूर्वमपविद्धं च वर्तितम् । निकुट्टकोरुदूवृत्तात्याक्षिप्तत्तोरोमण्डलान्यथ । 1418 नितम्बं करिहस्तं च कटीच्छिन्नमिति क्रमात् ।
दशभिः करणरेभिः प्रोक्तः पर्यस्तको बुधैः । 1419 १. तलपुष्पपुट, २. अपविद्ध, ३. वर्तित, ४. निकुट्टक, ५. ऊरूवृत्त, ६. आक्षिप्त, ७. उरोमण्डल, ८. नितम्ब, ९. करिहस्त और १०.कटीच्छिन्न-क्रमश: इन दस करणों की रचना से पर्यस्तक अंगहार का निर्माण करना चाहिए, ऐसा विद्वानों ने कहा है।
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