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मृत्याध्यायः
३२. कपालचूर्णन
लोहडीमलगं यद्वा विधाय धरणीतलम् । स्पृष्ट्वैव शिरसा यत्र परिवृति करोति चेत् । 1393
कपालचूर्णनं नाम करणं तत्प्रचक्षते । लोहडी या अलग नामक करण को करके पृथ्वीतल को छूकर जहाँ सिर को घुमाया जाता है, वहाँ कपालचूर्णन करण होता है। ३३. नतपृष्ठक
कपालचूर्णने जाते वक्षस्युत्तानिते नते । 1394
नतपृष्ठं परैरुक्तं वङ्कोलकरणं त्विदम् । कपालचूर्णन करण के हो जाने पर तथा नत नामक वक्ष के उत्तान करने पर नतपृष्ठ करण होता है । दूसरे आचार्यों ने इसे वह कोलकरण कहा है। ३४ करस्पर्श
अलगं विधाय करणं हस्तेनाश्रित्य तर्तकी भूमिम् । 1395
परिवर्तेन यदेदं स्पर्शनमुक्तं कराचं तत् । यदि नर्तकी अलग करण की रचना करके हाथ से घूमते हुए भूमि का आश्रय ग्रहण करे, तो वह करस्पर्श करण कहलाता है। ३५. स्कन्धमान्त
पृथ्व्यां स्थित्वांसयुग्मेन कृत्वा चैवोत्कटासनम् । 1396 करणञ्चाञ्चितं कृत्वा धृत्वाङ्गान्तरसञ्चरे । बाहुभ्यां भुवमाक्रम्य भ्रामं भ्रामं च पूर्ववत् । 1397
तिष्ठेत्प्रतिदिशं यत्र तत्स्कन्धभ्रान्तमुच्यते । दोनों कन्धों से भूमि पर अवस्थित होकर उत्कटासन तथा अञ्चित करण करके दूसरे अंगों को चलायमान करते हुए भुजाओं से पृथ्वी को आक्रान्त किया जाय और पूर्ववत् प्रत्येक दिशा में घूम-घूम कर खड़ा हुआ जाय, तो वहाँ स्कन्धमान्त करण होता है ।
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