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उत्प्लुतिकरणों का निरूपण
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२८. नागबन्ध
[स्या दर्पसरणस्यान्ते नागबन्धवदासनम् ।
यत्र तन्नागबन्धाख्यं करणं तद्विदो विदुः । 1387 जहाँ दर्पशरण के अन्त में नागबन्ध के समान आसन लगाया जाय, वहाँ करणों के ज्ञाताओं ने उसे नागबन्ध करण कहा है । २९. मत्स्यकरण
उत्प्लुतेमध्यमावृत्या कुरुते वामपार्श्वतः ।
परिवत्ति तदा यत्र तन्मत्स्यकरणं भवेत् । 1388 जहाँ उछलने के मध्य बार-बार वाम पार्श्व की ओर से चक्कर लगाया जाय, वहाँ मत्स्यकरण होता है ।
यद्वा कस्यापि करणस्यान्ते तु क्षितिमण्डले । उत्तानशयतो मध्यं नितम्बोन्नतिपूर्वकम् । प्रावर्त्य वामपावेन मत्स्यवत्परिवर्त्य च । अन्ते समुत्प्लुति कृत्वा पादोल्लालनया क्षणात् । 1390
उत्तिष्ठेद्यत्र तदपि मत्स्यायं करणं भवेत् । अथवा किसी करण के अन्त में पृथ्वी पर उत्तान सोकर नितम्ब को उठाये हुए मध्यभाग को घुमाकर वामपार्श्व से मछली की तरह उलटकर तथा अन्त में उछलकर पैर को सहलाते हुए क्षण भर में उठा जाय, तो यह भी मत्स्यकरण कहलाता है। ३०. तिर्यक् करण
यत्रकेनैव पादेन तिर्यगुत्प्लुत्य भूतले । 1391
निपत्यकाघ्रिणा तिष्ठत्तत्तिर्यककरणं भवेत् । जहाँ एक ही पैर से तिरछा उछलकर पृथ्वी पर गिरकर एक पैर पर खड़ा हुआ जाय, वहाँ तिर्यक् करण होता है। ३१. तिर्यस्वस्तिक
तिर्यस्वस्तिकमुत्प्लुत्य स्यात्तिर्यकस्वस्तिके कृते । तिरछी स्वस्तिक मुद्रा में उछलने से तिर्यस्वस्तिक करण होता है । १. देखिए : भरतकोश।
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