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नत्तकरण प्रकरण
९०. अवहित्य और उसका विनियोग
चारीमारच्य जनितां चेदरालालपल्लवौ । भालवक्षःस्थितौ हस्तौ क्रमादभिमुखाङ्गुली ॥१२७६॥ 1317 विधायोद्वेष्टितेनाथ पार्श्वगौ परिवृत्तितः । ततोपवेष्टय वक्षोगौ परिवृत्त्या पुनस्तथा ॥१२७७॥ 1318
न्यस्येते सम्मुखौ यत्र मिथस्तदवहित्थकम् । पैरों में जनिता चारी की रचना करके यदि अराल और पल्लव दोनों हाथों को क्रमशः ललाट तथा वक्ष पर रख दिया जाय; उनकी उँगलियाँ एक-दूसरे के आमने-सामने कर दी जाँय ; फिर उन्हें उद्वेष्टित करके पार्श्व में घुमा कर अलग कर दिया जाय और छाती पर रख दिया जाय; तत्पश्चात पुनः घुमाकर दोनों को पूर्ववत् आमनेसामने रख दिया जाय; तो उस मुद्रा को अवहित्थ करण कहते हैं।
गोपनाप्रायवाक्यार्थगोचरं परिकीतितम् ॥१२७८॥ 1319 इदं परेऽवहित्थाख्यं करयोगाद्वभाषिरे ।
चिन्तादौर्बल्यविषयं नृत्तविद्याविशारदाः ॥१२७६॥ 1320 अगोचर अर्थयुक्त वाक्यों के अभिनय में बहुधा अवहित्थ करण का विनियोग होता है। कुछ नृत्ताचार्यों का कहना है कि इस अवहित्य करण को, हाथ के योग से, चिन्ता तथा दुर्बलता का भाव प्रकट करने के अभिनय में प्रयुक्त किया जाता है। ९१. उद्धृत्त
प्रसार्याक्षिप्यते क्षिप्रं पाणिपादं यदेकदा ।।
अङ्गमुवृत्तचारीकमुद्वृत्तं तदुदीरितम् ॥१२८०॥ 1321 यदि एक हाथ-पैर को एक ही बार में शीघ्रतापूर्वक फैलाकर आक्षिप्त कर दिया जाय; दूसरे पैर और हाथ में उद्धृता चारी और धड़ भी उद्वृत्त कर दिया जाय; अर्थात् उठा दिया जाय; तो उसे उद्वृत्त करण कहते हैं । ९२. तलसंघटित
दोलापादाभिधां चारीमाचरन् यदि हस्तकौ । सङ्घट्टिततलौ कृत्वा पताको वैष्णवे स्थितः ॥१२८१॥ 1322
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