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नत्याध्यायः
उक्तं श्रीमदशोकेनयदि पैर हरिणप्लुत चारी में और दोनों हाथ खटकामुख तथा दोला में अवस्थित किये जाय; तो नपति अशोकमल्ल ने उसे हरिणप्लत करण कहा है।
-हरिणप्लुतिगोचरम् ॥१२७२॥ 1312 हरिणों की छलाँग के अभिनय में हरिणप्लुत करण का विनियोग होता है । ८७. सिंहविक्रीडित और उसका विनियोग
पुरः कृत्वालातपादं यत्र हन्तुमिवोद्यतः ।
पाणिस्तथापराङ्ग स्यात्सिहविक्रीडितं तदा । 1313 यदि पैर में अलात बनाकर उसे आगे करके और हाथ को मारने की स्थिति में किया जाय; तथा दूसरे हाथपैरों को भी तदनुसार संचालित किया जाय, तो वहाँ सिंहविक्रीडित करण होता है।
रौद्रगत्यामिदं प्रोक्तं नृत्तविद्याविशारदः ॥१२७३॥ नाट्याचार्यों ने रौद्र गति के अभिनय में सिंहविक्रीडित करण का विनियोग कहा है। ८८. सिंहाकर्षित और उसका विनियोग वामोऽध्रिर्वृश्चिकः पद्मकोशौ यद्वोर्णनाभको ।
1314 पराङ्घौ वृश्चिकीकृतो भङ्क्त्वा चेत्प्राक्तनौ करौ ।
पुनस्तथा कृतौ सिंहे सिंहाकर्षितकं तदा ॥१२७४॥ 1315 यदि बाँया पैर वश्चिक में; दोनों हाथ पद्मकोश या ऊर्णनाभ में किये जायें; फिर दूसरे पैर पर, वश्चिकाकार दोनों हाथों को भंग करके फिर उन्हें वृश्चिकाकार बना दिया जाय (अर्थात् इस क्रिया को बार-बार दुहराया जाय); तो उसे सिंहाकर्षित करण कहते हैं । सिंह के अभिनय में उसका विनियोग होता है। ८९. जनित और उसका विनियोग
जनिता यत्र चारी स्यान्मुष्टिर्वक्षःस्थलेऽपरः ।
करौ लताकरस्तत् स्यादारम्भे जनितं कृते ॥१२७५॥ 1316 यदि पैरों में जनिता चारी, हाथ वक्षस्थ पर और दूसरा हाथ लता मुद्रा में हो; तो उसे जनित करण कहते हैं। (सब प्रकार के) अभिनयों के आरम्भ करने में इस करण का विनियोग होता है।
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