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नत्याध्यायः
७९. स्खलित
गत्यागतौ यदा दोलापादाङ्ग्रेसपक्षकः ।
अनुगच्छेदेवमङ्गमपरं स्खलितं तदा ॥१२६४॥ 1302 • यदि एक पैर से दोलापाद बनाकर दूसरे पैर से हंसपक्षक धारण किया जाय; और हाथ भी तदनसार चलाये जायें; तो उसे स्खलित करण कहते हैं। ८०. परिवृत्त
उर्ध्वमण्डलिनौ पाणी चार्या बद्घाख्यया यदि । सूचीपादो विवृत्तः स्याद्यनाथ भ्रमरों भवेत् । .. 1303
तदेदं परिवृत्ताख्यं करणं समुदीरितम् ॥१२६५॥ यदि दोनों हाथ ऊर्ध्वमण्डल मुद्रा में हों; पर बद्धा चारी में होकर सूची चारी में घुमाया जाय; और तदनन्तर त्रिक भी भ्रमरी में हो; तो उसे परिवृत्त करण कहते हैं। ८१. करिहस्त
खटकास्यः करो वामो हृद्यन्योद्वेष्टनेन चेत् । 1304 कर्णेऽन्यस्त्रिपताकोऽथ सपादः पुरतोऽञ्चितः ।
निर्गच्छति तदेतत्स्यात्करणं करिहस्तकम् ॥१२६६॥ 1305 यदि खटकास्य नामक बाँया हाथ दूसरे हाथ से उद्वेष्टित होकर हृदय पर रहे; फिर दूसरा दाँया त्रिपताक हाथ कान पर रहे; और अञ्चित नामक पैर आगे निकल कर संचलित हो; तो उसे करिहस्त करण कहते हैं। ८२. प्रसपित और उसका विनियोग
रेचितो यः करः सोऽज्रिर्यत्र घर्षन् भुवं व्रजेत् । शनैः शनैरन्यपादादपरश्चेल्लताकरः । 1306
प्रपितमिदं धीरस्तदायदि एक हाथ रेचित में और दूसरा लता में रखा जाय; दोनों पर प्रसर्प में धीरे-धीरे भूमि पर संचालित किये जाँय; तो धीर पुरुषों के मत में उसे प्रसपित करण कहते हैं ।
-खगगतौ मतम् ॥१२६७॥ आकाशचारी जीवों की गति के अभिनय में प्रापित करण का विनियोग होता है।