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जहाँ पैरों को ऊर्ध्वजानु तथा दोलापाद (पैर झुलाना) चारियों में अवस्थित किया जाय और हाथ भी उसी ( दोल) का अनुसरण करे, वहाँ दोलापाद करण होता है । ५४. तलविलासित और उसका विनियोग
नृत्याध्यायः
श्रङ्घ्रिस्तुर्ध्वाङ्गुलितलः पार्श्वे तूर्ध्वं प्रसारितः । पताकश्वेदे मङ्गान्तरे क्रमात् । तदा तलविलासितम् ॥१२३०॥
तदग्रगः
सूत्रधारादिविषयं
जब एक पैर की उंगलियों का तल भाग ऊपर उठा हो और पैर पादर्व में ऊपर की ओर प्रसारित किया गया हो; तदनन्तर उसके आगे पताक हस्त हो; और इसी प्रकार अन्य अंगों की भी रचना की जाय, तो उसे तलविलासित करण कहते हैं । सूत्रधार आदि के अभिनय में उसका विनियोग होता है । ५५. विवृत्त और उसका विनियोग
चार्या चरणमाक्षिप्यासकृदाक्षिप्तया यदा । विधाय हस्तौ व्यावृत्तिपरिवर्तनसंयुतौ ॥१२३१॥ यत्र ततस्तौ रेचयेन्नटः ।
समाख्यातम् -
जब नर्तक या अभिनेता आक्षिप्ता नामक चारी के द्वारा पैर को बार-बार फेंक कर दोनों हाथों को व्यावर्तित तथा परिवर्तित करता है; और पुनः भ्रमरी की रचना करने के उपरान्त दोनों हाथों को रेचित में कर दिया जाता है, तब इसे विवृत्त करण कहते हैं ।
परिक्रमे ॥१२३२॥
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विदध्याद्भ्रमरों तद्विवृत्त
- उद्धतस्य उद्धत गति के अभिनय में विवृत करण का विनियोग होता है । ५६. विनिवृत्त और उसका विनियोग
यत्र सूच्यङ्घ्रिणान्योऽङ्घ्रिः पाष्र्णो स्वस्तिकमाचरेत् । ततस्त्रिकस्य चलनं व्यावृत्तिपरिवृत्तितः ॥१२३३॥ एकपार्श्वे विधायाथ चारों बद्धाभिधां करौ । रेचितौ तौ चरेत् तत् स्याद्विनिवृत्तम्
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