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नृत्याध्यायः
४७. वृश्चिक कुट्टित और उसका विनियोग
वृश्चिकं चेद्विधायाघ्र भुजशीर्षे करौ क्रमात् । प्रलपद्मौ निकुट्टघेते तदा वृश्चिककुट्टितम् ।
यदि एक पैर वृश्चिक मुद्रा और दोनों हाथों को क्रमश: अलपद्म तथा निकुट्ट में धारण किया जाय, तो उसे वृश्चिक कुट्टित करण कहते हैं ।
साश्चर्याकाशगमनवाञ्छादौ
तत्प्रयुज्यते || १२२२|| 1253 आश्चर्य के साथ आकाश गमन और इच्छा आदि के अभिनय में वृश्चिककुट्टित. करण का विनियोग होता है ।
४८. लतावृश्चिक और उसका विनियोग
1252
वृश्चिकेऽङ्घ्रियंदा वामः करश्चेत्स्याल्लताकरः । तदा लतावृश्किम् -
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जब एक (दाहिना) पर वृश्चिक मुद्रा में और बायाँ हाथ लताहस्त मुद्रा में हो, तब उसे लतावृश्चिक करण कहते हैं ।
- तदाकाशोत्पतने
आकाश में उड़ने के आशय में लतावृश्चिक करण का विनियोग होता है । ४९. वैशाखरेचित
मतम् ॥१२२३ || 1254
रेचितं यत्र पाण्यङ्घ्रिकटिग्रीवं यदा भवेत् ।
वैशाखस्थानके तत् स्यात् तदा वैशाखरेचितम् ॥१२२४ ॥ 1255
जहाँ दोनों हाथ, पैर, कमर तथा ग्रीवा रेचित में रखे जाँय और वैशाख स्थानक की रचना की जाय, तब उसे वैशाखरेचित करण कहते हैं ।
५०. चक्रमण्डल और उसका विनियोग
चरयित्वाडितां चारों चक्राकारं भ्रमेद्यदि ।
यत्र दोलाख्यहस्ताभ्यां देहेनान्तर्नतेन चेत् ॥ १२२५॥ 1256 तत्तदा सद्भिराख्यातं करणं चक्रमण्डलम् ।