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नत्याध्यायः
कूर्परस्वस्तिकेन स्तः पराङ्मुखविलोडितौ । अथवा द्रुतमानेन केवलं सरलत्वतः ॥८३१॥ 840 वामदक्षिणयोः पश्चात्त्रिकावधि विलोडितौ । एककमथवा नेत्रसुखदौ स्वस्तिको करौ ॥३२॥ 841 यत्रोर्ध्वाधोमुखौ तिर्यग्गतौ तत्कथितं तदा ।
कररेचितरत्नाख्यं लक्ष्मलक्षणवेदिभिः ॥३३॥ 842 पहले दोनों हाथ पाँजरों पर जाय; उसके बाद दो दिशाओं के बीच में स्वस्तिक मद्रा में बद्ध हों; फिर परस्पर ऊपर को जाकर कटि का आश्रय ग्रहण करें; अनन्तर बालव्यंजन नामक चालन क्रिया का पूर्ववत् आश्रय लें; फिर वर्तनास्वस्तिक नामक चालन-क्रिया करके भूमि के संमुख होकर मण्डलाकार में ऊपर उठे और स्वस्तिकाकार में नीचे गिरें; तत्पश्चात् एक हाथ को नितम्ब हस्त बनाया जाय और दूसरे को रथ के पहिये की तरह घुमाकर हाव-भाव के साथ आन्दोलित किया जाय; सीधा रखे, हटा दे, घेर दे, फैला दे, और झुका दे; उसके बाद दोनों हाथों को अथवा एक-एक को कन्धे के अन्त में लोटाया जाय ; फिर दोनों भुजाओं को मण्डलाकार में ऊपर उठा कर एक-दूसरे के आमने-सामने करके सिर से कटिक्षेत्र के अन्त तक बारी-बारी से गिराया जाय, और उठाया जाय; पश्चात् स्वस्तिक मुद्रा में बाँधकर रमणीय प्रदेशों में बायें-दायें क्रम से शीघ्रता के साथ घुमाया जाय; उसके बाद हाव-भाव के साथ भीतर-बाहर चक्र के समान चलाते हुए दोनों को स्वस्तिकाकार कुहनी से पराङमख तथा आन्दोलित किया जाय; अथवा केवल द्रतगति से सरलतापूर्वक बायें-दायें क्रम से तीन बार तक उन्हें आन्दोलित किया जाय; फिर एक-एक अथवा दोनों नेत्रसुखदायी स्वस्तिकाकार हाथों को ऊर्ध्वमुख, अधोमुख तथा तिरछा करके अवस्थित किया जाय । इन्हीं उपर्युक्त क्रियाओं को लक्ष्य-लक्षण के विशेषज्ञों ने कररेचितरत्न चालन कहा है।
रमणीयमिदं यत्र प्रायेण जैः प्रयुज्यते । तत्र सिद्धास्तथासिद्धा देवाश्च मुनिभिः सह ॥८३४॥ 843 सदा तिष्ठन्ति सुप्रीतास्तथा विद्याधरादयः ।
ग्रन्थविस्तरतो नातिविस्तरः कथितो मया ॥३५॥ 844 जहाँ विज्ञ पुरुषों द्वारा इस समणीय चालन का प्रयोग किया जाता है वहाँ सिद्ध, असिद्ध, देवता, मुनि तथा विद्याधर आदि सदा प्रेमपूर्वक उपस्थित रहते हैं। ग्रन्थ-विस्तार के भय से मैंने इसको अधिक विस्तार से नहीं बताया।
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