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१८. स्तम्भक्रीडनिका
नृत्याध्यायः
तिर्यक्प्रसृत पादस्य
पार्श्व
परतलेन चेत् ।
यत्र स्पृशेन्मुहुः सोक्ता स्तम्भक्रीडनिका तदा ॥१०४३॥ 1065
जहाँ तिरछे फैले हुए एक पैर के पार्श्व को दूसरे पैर का तलवा बार-बार स्पर्श करे, वहाँ उसे स्तम्भक्रीडनिका चारी कहते हैं ।
१९. तिर्थकुकुंचिता
अङ्घ्रि तिर्यञ्चमाकुञ्च्य न्यस्येद्यत्र समवोचदिमां तिर्यक्कुञ्चितां
जहाँ एक पैर को तिरछा करके कुछ सिकोड़ कर बार-बार ( भूमि पर ) रखा जाय, वहाँ उसे अशोक मल्ल ने तिर्यक्कुञ्चिता चारी कहा है ।
२०. तलदशनी
मुहुर्मुहुः ।
वीरसिंहजः || १०४४ ॥ 1066
चरणौ संहतस्थौ चेत्तिर्यग्विच्युत्य भूतलम् ।
स्पृशतो बाह्यपाश्वभ्यां स्यात्तदा तलर्दाशिनी ॥१०४५॥ 1067
जब संहत स्थानक में स्थित दोनों चरण तिरछे अलग होकर बाहरी पावों से भूतल का स्पर्श करें, तब उसे तलर्दाशिनी चारी कहते हैं ।
२१. खुत्ता
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पादाग्रेण क्षितौ घातो यत्र खुत्तेति सा मता ॥१०४६॥ जहाँ चरणों के अग्रभाग से पृथ्वी पर आघात किया जाय, वहाँ उसे खुत्ता चारी कहते हैं । २२. लंघितजंघिका
खण्डसूचिः स्थितः पादो वेगेनाकृष्य लङ्घ्यते । यत्रान्यचरणेनैषा भवेल्लङ्घितजङ्घका ||१०४७॥
जहाँ खण्डसूचि स्थानक में अवस्थित एक पैर को वेग से खींचकर दूसरा पैर लाँघ जाता है, वहाँ उसे लंघितजंघिका चारी कहते हैं । २३. स्वस्तिका
जहाँ पैर स्वस्तिकाकार धारण करें, वहाँ उसे स्वस्तिका चारी कहते हैं ।
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स्वस्तिकाकृतिभागंङ्घ्रियंत्र सा स्वस्तिका मता ॥ १०४८ ॥ 1069