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नत्याध्यायः
कुछ विद्वानों का मत है कि निकुञ्चित करण-मुद्रा में पताक तथा सच्यास्य हस्तों को नासिका के अग्रभाग में अवस्थित करना चाहिए । १९. निकुटक
कृत्वादौ मण्डलस्थानं चतुरस्रतया करम् । सव्यमुद्वेष्टितेनांसशीर्षमानीय यत्र तत् ॥११७६॥ 1199 पतनोत्पतनोपेतकनिष्ठाद्यगुलीद्वयम् । विदध्यादलपद्म तमङ्घ्रिमुद्घट्टयेत्करम् ॥११७७॥ 1200 सव्यमाविद्धवक्रत्वं नीत्वाथ चतुरस्रकम् ।
कुर्यादेवं वामपाणिपादं तत् स्यान्निकुट्टकम् । 1201 आरम्भ में मण्डल नामक स्थानक की रचना करके बांये हाथ को चतुरस्र मुद्रा में अवस्थित किया जाय; फिर उसे चारों ओर से घुमावदार बना कर कन्धे के ऊपर लाकर कनिष्ठा तथा अनामिका उँगलियों को क्रमशः गिरने तथा उठने की स्थिति में किया जाय; तत्पश्चात् अलपद्म हस्त की रचना करके एक पैर को अलग किया जाय; फिर दायें हाथ को अविद्धवक्र बनाकर चतुरस्र स्थिति में लाया जाय; यही प्रक्रिया पैर से भी की जाय । अभिनय की इस स्थिति को निकट्टक करण कहते हैं । २०. अर्धनिकुट्टक
अनैकेन रचितमिदमनिकट्टकम् ॥११७८॥ यदि निकुट्टक करण की एक ही अंग से रचना की जाय, तो वह अनिकुट्टक करण कहलाता है । २१. विक्षिप्ताक्षिप्तक और उसका विनियोग
सव्यावृत्तौ करे सोऽङ्घ्रिबहिविक्षिप्यते यदि । 1202 चतुरस्रस्तदान्योऽथ प्राक्तनः परिवृत्तियुक् ॥११७६॥ पाणिपादः स प्राक्षिप्तो यत्राङ्गमपरं क्रमात् । 1203
एवमेवं भवेदेतद्विक्षिप्ताक्षिप्तकं तदा ॥११८०॥ यदि दायें हाथ को बायीं ओर घुमा दिया जाय और पैर को बाहर की ओर प्रसारित किया जाय; इसी तरह दूसरे चतुरस्र हस्त को भी घमाया जाय; फिर हाथ, पैर और तदनन्तर क्रमशः एक-एक अंग का संचालन किया जाय; तो उस अभिनय-स्थिति को विक्षिप्ताक्षिप्तक करण कहते हैं ।
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