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नृत्याध्यायः
१४. भुजंगवासित
भुजङ्गात्रासितां चारों विधायाघ्रि तु कुञ्चितम् । उत्क्षिप्योरुकटोजानु यदि व्यत्रं विवर्तयेत् ॥११६५॥ 1187 व्यावृत्त्या परिवृत्त्या च यत्रको दोलसंज्ञकः ।
करोऽन्यः खटकास्यस्तद्भुजङ्गत्रासितं तदा ॥११६६॥ 1188 यदि भजंगत्रासिता चारी में अवस्थित पैर को कुंचित करके तथा कटि और जान को उछाल कर त्रिकोण में घुमाया जाय; और एक हाथ को दोल मुद्रा तथा दूसरे को खटकामुख मुद्रा में अवस्थित करके व्यावृत्त-परिवृत्त (आर-पार) किया जाय, तो उसे भुजंगत्रासित करण (सर्प से भयभीत) कहते हैं । १५. कटीसम और उसका विनियोग
कृत्वाक्षिप्तामपक्रान्तां चारी चाथ करावुभौ । स्वस्तिकीकृत्य नाभौ तु दक्षिणं खटकामुखम् ॥११६७॥ 1189 अर्धचन्द्रं परं कटयां कुर्यात् पार्वं तु सन्नतम् । एकमुद्वाहितं त्वन्यदेवमङ्गान्तररपि ॥११६८॥ 1190
प्रावृत्तिर्वैष्णवं स्थानं यत्र तत्स्यात्कटीसमम् । पहले अपक्रान्ता नामक चारी की रचना करके दोनों हाथों को स्वस्तिकाकार बनाया जाय ; तदनन्तर दाहिने हाथ को खटकामुख मुद्रा में नाभि पर और बायें हाथ को अर्धचन्द्र मुद्रा में कटि पर अवस्थित किया जाय; एक पार्श्व को संनत और दूसरे को उवाहित में रखा जाय; अन्य अंगों को भी यथास्थान व्यवस्थित किया जाय; फिर वैष्णव स्थानक की रचना की जाय । इस नत्य-मुद्रा को कटीसम करण (समान कटी) कहा जाता है।
सूत्रधारेण तद्योज्यं जर्जरस्याभिमन्त्रणे ॥११६६॥ 1191 सूत्रधार द्वारा जर्जर का आवाहन करने के अभिनय में कटीसम करण का विनियोग होता है । १६. कटीच्छिन्न और उसका विनियोग
पार्श्वतो भ्रमरी कृत्वा मण्डलस्थानमाश्रितः । विधायकां कटौं छिन्नां पल्लवं भुजमूर्धनि ॥११७०॥ 1192 एवमङ्गान्तरेणापि द्विस्त्रिावृत्तयः कृताः । यत्र तत्तु कटीछिन्नं करणं कोतितं बुधैः ॥११७१॥ 1193
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