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नृत्तकरण प्रकरण
सब प्रकार की दुर्भावनाओं को दूर करने, निषेध करने, दूसरे को ढूंढ़ने, संभाषण करने और युद्धस्थल के चारों ओर घूमने के अभिनय में पृष्ठस्वस्तिक करण का विनियोग होता है । ( इस अभिनय में नर्तकी सभास्थल की ओर पीठ भी कर सकती है ) ।
१२. आक्षिप्त रेचित और उसका विनियोग
हृदि स्थितौ करावूर्ध्वं व्यावृत्त्या प्राप्य चेत्ततः ।
विक्षिप्य पार्श्वयोस्तत्र करमेकमधोमुखम् ॥ ११६०॥ 1182 व्रतभ्रमं हंसपक्षं वक्षस्याक्षिप्य चेत्परम् । करमेवंविधं
यत्र रेचयेत्तदनन्तरम् ॥११६१ ॥ 1183 स्यातां सूच्यञ्चितावङ्घ्री तत् तदाक्षिप्तरेचितम् ।
हृदय पर अवस्थित दोनों हाथों को ऊपर घुमाकर यदि पावों में डाल दिया जाय; तदनन्तर एक हाथ को अधोमुख करके दूसरे हंसपक्ष हस्त को तेजी से घुमाते हुए वक्ष पर फेंक दिया जाय दूसरे हाथ को भी इसी मुद्रा में अवस्थित किया जाय; तदनन्तर दोनों पैरों को सूची और अंचित मुद्राओं में बना दिया जाय; तो उस मुद्रा को आक्षिप्त रेचित करण कहते हैं ।
दर्शयेदमुना
त्यागपरिग्रहपरम्पराम् ॥११६२॥ 1184
त्याग और परिग्रह का भाव प्रकट करने अथवा परम्परानुसार आक्षिप्त रेचित करण का विनियोग होता है । १३. अलात और उसका विनियोग
चारी नितम्बश्चतुरस्रकः ।
यत्राseाताभिधा पाणिः स्याद्दक्षिणे भागेऽथोर्ध्वजानुस्तु वामतः ॥११६३॥ 1185 यदैवमन्यदङ्गं स्यात् तत् तदालातमीरितम् ।
यदि (पैरों में) अलाता चारी, नितम्ब चतुरस्र स्थिति में, एक हाथ दक्षिण भाग में, बायां घुटना उठा हुआ और अन्य अंग भी यथास्थान हो, तो वहाँ अलात करण होता है ।
नृत्ये सललिते वीरसिंहजेन महीभुजा ॥११६४॥ 1186 ललित-भाव-सूचक नृत्य में अलात करण का विनियोग होता है, ऐसा अशोकमल्ल ( वीरसिंह सुत) का अभिमत है
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