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नृत्तकरण प्रकरण
गतागते वदन्त्यस्य नियोगं केऽपि सूरयः । . 1204
स नेष्टो नाट्यविदुषां यतोऽभिनयपाणिभिः ॥११८१॥ नाट्याचार्यों की एक परम्परा जाने-आने के अभिनय में इस करण का विनियोग बताती है; किन्तु दूसरी परम्परा के नाट्याचार्यों को यह अभिमत मान्य नहीं है। उनका कथन है कि इस करण में हस्ताभिनय की प्रमुखता है, और गमनागमन में तो पादों का प्रयोग होता है, जो उचित नहीं है।
वाक्यार्थाभिनयः . कार्यः प्राधान्येनाभिनेतृभिः । 1205
इदं तु सद्धिराख्यातं नृत्यमात्रपरं ततः ॥११८२॥ सज्जनों के निर्देश से इस करण में अभिनेताओं को मुख्य रूप से गीत और भाव (वाक्यार्थ) का अभिनय करना चाहिए; क्योंकि अभिनय ही उसका एकमात्र प्रयोजन है।
प्रयोज्यमेतन्नाव्यानं विच्छेदे सन्धिगुप्तये। 1206 यदि ताललयादीनां गतीनां च परिक्रमे ॥११८३॥ तथा तालानुसन्धाने तथा युद्धनियुद्धयोः ।
1207 चारीस्थानकसंयोगेऽप्येतत्करणमीरितम् ॥११८४॥ अलग होने, सन्धि के गोपन, ताल-लय आदि की गतियाँ, परिक्रमा, ताल के अनुसन्धान, युद्ध, कुस्ती और चारीस्थानक-संयुक्त अभिनय में इस नाट्यांगभूत करण का प्रयोग करना चाहिए । २२. अपविद्ध और उसका विनियोग
चतुरस्त्रं समाश्रित्य सव्यं व्यावर्त्य हस्तकम् । 1208
निस्सार्याक्षिप्तया चार्या कृत्वा तद्दिग्भवं करम् । यदि बायें हाथ को चतुरस्र मुद्रा में अवस्थित करके (दाहिनी ओर) घुमाकर और उसी दिशा के दूसरे दायें हाथ को आक्षिप्ता चारी धारण कर उसे बाहर की ओर नि:सारित कर दिया जाय, तो उसे अपविद्ध करण कहते हैं ।
- [शुकतुण्डं करं तस्यवोरौ तु परिपातयेत् । 1209
. यंत्रापविद्धं तद्वामे वक्षःस्थे खटकामुखे ।] अथवा-यदि बायें हाथ को शुकतुण्ड मुद्रा में बनाकर उसे बायें ही ऊरु पर गिरा दिया जाय और दूसरे दायें हाथ को खटकामुख मुद्रा में अवस्थित कर वायें वक्ष पर रख दिया जाय, तो उसे अपविद्ध करग कहते हैं। १. देखिए : संगीतरत्नाकर, अध्याय ७, श्लोक ६०२, ३ ।