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नृत्याध्यायः
२८. अर्षरेचित
मण्डलस्थानमाश्रित्य खटकास्यं यदा हृदि । कृत्वा कुर्यात्करं सूची [मुखं चैव] तदन्तिके ॥११६४॥ 1220 तद्दिक्कं पादमुद्घाट्य सन्नतं पार्श्वमाचरेत् ।
तदापसरणे प्रोक्तं नृत्त रर्धरेचितम् ॥११६५॥ 1221 जब मण्डल स्थानक में अवस्थित होकर खटकामख हस्त को हृदय पर रख दिया जाय; फिर उसे सूचीमुख हस्त बना दिया जाय। जिस दिशा में हाथ हो उसी दिशा में एक पैर को बढ़ाया जायः पार्श्व को सन्नत मुद्रा में अवस्थित किया जाय; उसके बाद पीछे हटा जाय; तब उस क्रिया को अपरेचित करण कहते हैं। २९. ऊर्ध्वजानु
ऊर्ध्वजानौ यदा चार्या कुश्चितेऽज्रावसो करः । प्रलपद्मोऽथवारालः पक्षवञ्चितकोऽथवा ॥११९६॥ 1222 ऊर्ध्वास्यः कुचसाम्यस्थजानुनः खटकोऽपरः ।
वक्षःस्थः स्यात्तदा धोररूर्वजानु प्रकीतितम् ॥११६७॥ 1223 जब ऊर्ध्वजान नामक चारी तथा कुञ्चित नामक पैरों की स्थिति में अलपन या अराल अथवा पक्षवंचितक नामक हाथ ऊर्ध्वमुख रहे और दूसरा खटकामुख हाथ कुच की समानता में अवस्थित, घुटने पर से होते हुए वक्ष पर रख दिया जाय, तो धीर पुरुषों ने उसे ऊर्ध्व जानु करण कहा है। ३०. कटिमान्त और उसका विनियोग
अपसर्प द्रुतं वामं चरणं यत्र तस्य तु । पावें न्यस्येत्परं सूची ततश्चेभ्रामयेत्कटिम् ॥११९८॥ 1224 कुर्याद्वा भ्रमरों पाणी व्यावृत्तपरिवर्तितौ ।
वैष्णवस्थानमन्ते तत् कटिभ्रान्तं तदा मतम् ॥११६६॥ 1225 पीछे हटने की शीघ्रता की स्थिति में बायें चरण को पार्श्व भाग में रख दिया जाय; फिर दूसरे दायें पैर को सूची मुद्रा में कर दिया जाय और तत्पश्चात कटि को घुमाया जाय; अथवा भ्रमरी चारी की रचना कर दोनों हाथों को व्यावृत्त-परिवत किया जाय; अन्त में वैष्णव नामक स्थानक का निर्माण किया जाय; इस क्रिया को कटिमान्त करण कहते हैं ।