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नृत्याध्यायः
कर करिकर केचिदत्र प्रोचुः कटिस्थितम् । 1176 अर्धचन्द्रकरं सव्यं कुर्याद्वा पक्षवञ्चितम् ।
पक्षप्रद्योतमथवा कटिदेशगतं विह ॥११५६॥ 1177 कुछ नाट्याचार्यों का अभिमत है कि करिहस्त मद्रा को कटि पर रखना चाहिए। दाहिने हाथ को अर्धचन्द्र मुद्रा में अथवा पक्षवञ्चित मुद्रा में अथवा पक्षप्रद्योत मुद्रा में बनाकर कटि पर अवस्थित करना चाहिए। (अर्धस्वस्तिक इसे इसलिए कहा गया है कि इसमें केवल पैर को ही स्वस्तिक मुद्रा में रखा जाता है)। . १०. विक्स्वस्तिक और उसका विनियोग
क्रियते स्वस्तिको यत्र पाणिपादविनिर्मितः ।
ललिताङ्गश्चतुर्दिक्ष तद् दिक्स्वस्तिकमुच्यते । 1178 यदि हाथ-पैर दोनों को स्वस्तिक मुद्रा में अवस्थित किया जाय और चारों दिशाओं में ललित नामक अंग का निर्माण किया जाय, तो उसे दिक्स्वस्तिक करण कहते हैं ।
नियुज्यते बुधरेतद् गीतस्य परिवर्तने ॥११५७॥ विद्वानों के मत से गाने के समय शरीर की गति दिखाने में दिक्स्वस्तिक करण का विनियोग होता है। ११. पृष्ठस्वस्तिक और उसका विनियोग
चारों कुर्वन्नपक्रान्तां विक्षिप्योद्वेष्टितौ भुजौ । 1179 ततोऽपवेष्टय चाक्षिप्याऽन्याघ्रि सूची विधाय च ॥११५८॥ पादाभ्यां यत्र पाणिभ्यां पृष्ठे स्वस्तिकमाचरेत् । 1180
तत् पृष्ठस्वस्तिकं ज्ञेयम्यदि दोनों उद्वेष्टित भुजाओं को अपक्रान्ता चारी में व्यवस्थित करने के अनन्तर उन्हें अलग-अलग करके पीछे की ओर घुमा दिया जाय; पैर को सूची नामक मुद्रा में अवस्थित किया जाय; तत्पश्चात् दोनों पैरों और दोनों हाथों से पृष्ठ भाग में (पीठ पीछे) स्वस्तिक मुद्रा बनायी जाय, तो उसे पृष्ठस्वस्तिक करण (पीठ पर स्वस्तिक बनाना) कहते हैं ।
-सराभस्ये निषेधने । अन्यान्वेषणसम्भाषे युद्धस्य च परिक्रमे ॥११५६॥ 1181 २९८