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नृत्याध्यायः
२३. चक्रकुट्टिता
कुट्टयित्वा तु विन्यस्य भ्रामितो लुठितो यदि । 1129
कुट्टितोऽनिःपुनःस्थाने तदोक्ताचक्र(? वक्र)कुट्टिता॥१११२॥ यदि पैर को कूटकर स्थापित करके घुमाया तथा लोटाया जाय और पुनः स्थान पर कूटा जाय, तो उसे चक्रकुट्टिता चारी कहते हैं। २४. पार्श्वद्वयचरी
कुट्टितोऽगुलिपृष्ठे च स्थितोऽम्रिरितरस्ततः । 1130 स्वस्तिकाद्विच्युतः पूर्वः स्वपार्वे च निकुट्टितः ।
एवमयन्तरेणापि पार्श्वद्वयचरी तदा ॥१११३॥ 1131 . यदि कूटा हुआ पैर उंगुलियों के पृष्ठभाग में स्थित हों; दूसरा पैर स्वस्तिकमुद्रा से अलग हो; पहला अपने पार्श्व में कूटा जाय; इस प्रकार दूसरे पैर से भी किया जाय; ऐसी क्रिया को पार्श्वद्वयचारी कहते हैं । २५. मध्यलुठिता
कुट्टितः स्थापितोऽङ्घ्रिश्चेल्लुठितश्च निकुट्टितः ।
समादिष्टा तदा मध्यलुठिता वृत्तवेदिभिः ॥१११४॥ 1132 यदि एक पैर कूटा जाय, रखा जाय,लोटाया जाय और फिर कूटा जाय तो नृत्त के ज्ञाताओं ने उसे मध्यलपिठिता चारी कहा है।
प्रायशोऽमूः प्रयुज्यन्ते तालनृत्यविचक्षणः ।
एताः समासतः प्रोक्ता ज्ञेया एवं परा अपि ॥१११५॥ 1133 ताल और नृत्य के विद्वान् इन चारियों का प्रयोग बहुलता से करते हैं । इनको संक्षेप में बताया गया है । इस प्रकार अन्य चारियों को भी जान लेना चाहिए।
समवेत रूप में एक सौ ग्यारह मार्गदेशीस्थित चारियों का निरूपण समाप्त
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