________________
नृत्याध्यायः
करो निवृत्तौ वेगेन मिथः सांमुख्यधारिणौ । यत्रोरभ्रकसम्बाधचालनं तत् तदेरितम् ॥ ८१७॥
यदि दोनों हाथों को स्वस्तिकाकार बनाकर बाहर ही निकाला जाय और फिर एक-दूसरे के आमने-सामने करके वेग से हटा दिया जाय, तो उसको उरभ्भ्रकसम्बाध चालन कहते हैं ।
३५. मणिबन्धगतागत
824
मणिबन्धे यदैकस्य करो स्थित्वा
बहिर्मण्डलग:
यस्मिन् प्रवर्तते तत् स्यात् मणिबन्धगतागतम् ॥१८॥ - 826
जब एक हाथ की कलाई पर दूसरा हाथ लोटा दिया जाता है और फिर उसको बाहर के गोल घेरे में रखकर भीतर के गोल घेरे में कर दिया जाता है, तब उसे मणिबन्धगतागत चालन कहते हैं ।
३६. तार्क्ष्यपक्षविनोदक
विलुठितोऽपरः । तथान्तर्मण्डलैस्तदा ।
वर्तनास्वस्तिकीभूय विधुतौ पार्श्वयोर्लोडितौ प्रोक्तौ
२३०
825
युगपत् करौ । तापक्षविनोदकम् ॥ ८१६॥ 827
यदि दोनों हाथों को वर्तनास्वस्तिक चालन बनाकर एक साथ कम्पित किया जाय और फिर दोनों पावों में संचालित किया जाय, तो उसे तार्क्ष्यपक्षविनोदक चालन कहते हैं ।
३७. धनुर्वल्लीविनामक
कृत्वोर्ध्वाधोमुखौ हस्तौ विलासात् क्रमतो यदि । मण्डलाकृतिसम्भ्रान्तौ ततस्तावेव पूर्ववत् ॥ ८२०॥ शीर्षदेशे कटीदेशे पार्श्वयोतिसंयुतौ । स्यातां यत्र तदा तत् स्याद् धनुर्वल्लीविनामकम् ॥ ८२१ ॥ यदि दोनों हाथों को हाव-भावपूर्वक क्रमशः ऊर्ध्वमुख तथा अधोमुख करके मण्डलाकार में घुमाया जाय और फिर उन्हीं को पूर्ववत् सिर पर, कमर पर तथा पार्श्वो में झुकाकर अवस्थित किया जाय, तो उसे धनुर्वल्लीविनामक चालन कहते हैं ।
829
३८. तिर्यक्ताण्डव
पूर्वमूध्वं विधायैकं तिर्यग् नाभिप्रदेशगम् ।
828