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नत्याध्यायः
निषण्णौ तु नभस्यूरू यत्रोवं तावदन्तरौ ॥८६२॥
भुवो विशाखदैवं तद्वैशाखं स्थानकं मतम् । 907 जहां दोनों पैर त्र्यस्र तथा पक्षस्थित हों; दोनों में साढ़े तीन ताल का अन्तर हो; और जंघाएँ आकाश में स्थित (अर्थात् भूमि से ऊपर उठी) हों, तो उसे वैशाख स्थानक कहते हैं । उसका अधिष्ठाता देवता विशाख (स्कन्द) हैं।
प्रेरणे वाजिनामाजौ तथा रङ्गप्रवेशने ।
वाहने वेगदाने च स्थूलपक्षिनि [री] क्षणे ॥८६३॥ 908 घोड़ों को हाँकने या ऊपर चढ़ने, युद्ध, रंगभूमि में प्रवेश करने, वाहन, वेगवान् और स्थल पक्षियों के निरीक्षण में उसका विनियोग होता है। ४. मण्डल और उसका विनियोग
त्र्यस्रो पक्षस्थितौ पादावेकतालान्तरौ क्षितौ । निषण्णौ व्योम्नि यत्रोरू सार्धतालद्वयान्तरे ॥८६४॥ 909
कटीजानुसमौ तत् स्यान्मण्डलं शक्रदैवतम् । जहां दोनों पैर त्र्यन मुद्रा में पक्षस्थित हों; दोनों में एक ताल का अन्तर हो; दोनों भूमि पर अवस्थित हों; दोनों जंघाएँ ढाई ताल के अन्तर पर आकाश में स्थित हों; और कटिभाग अँघाओं के बराबर हों; तो उसे मण्डल स्थानक कहते हैं। उसका अधिष्ठाता देवता इन्द्र है ।
प्रयोगे चापवज्रादेस्तथा वारणवाहने ॥६५॥ 910 प्रेक्षणे
गरुडादीनामेतन्मुनिरभाषत । चतुस्तालान्तरौ पादौ परेऽत्र प्रतिपेदिरे ॥८६६॥ 11 धनुष तथा वज्र आदि के चलाने, हाथी की सवारी और गरुड़ आदि के देखने के अभिनय में भरत मुनि ने इस आसन का विनियोग बताया है। कुछ आचार्यों के मत से दोनों पैरों में चार ताल का अन्तर होना चाहिए। ५. आलोढ़ और उसका विनियोग
बामो व्योम्नि निषण्णोर्यत्र पूर्वोक्तमानतः । अग्ने प्रसारितोऽघ्रिश्च पश्चतालान्तरेऽपरः ॥८६॥ 912 त्र्यस्रौ द्वावपि चेत् तत् स्यादालीढं रुद्र दैवतम् ।
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