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चारी प्रकरण
यदि कुञ्चित पैर को तब तक ऊपर उठाया जाय जब तक उसका घुटना स्तन के बराबर ऊँचा न उठ जाय और दूसरा पैर स्थिर रहे ; ऐसी क्रिया को ऊर्ध्वजानु आकाशचारी कहते हैं । ७. भुजंगत्रासिता
परोरुमूलक्षेत्रान्तमज्रिमुत्क्षिप्य . कुञ्चितम् । नितम्बाभिसुखीं यत्र पाष्णि जानु स्वपार्श्वगम् ॥१००६॥ 1026 उत्तानिततलं पादं कटीजानुविवर्तनार्य ।
विदध्याद्यदि सान्वर्था भुजंगत्रासिता तदा ॥१००७॥ 1027 यदि दूसरे ऊरु के मूल भाग तक कुञ्चित पैर को ऊपर उठाकर एड़ी को नितम्ब के सम्मुख किया जाय तथा घुटने को अपने पार्श्व में पहुंचा दिया जाय; फिर चरण को कटि तथा घुटने के पास घुमाकर उसके तलवे को उत्तान कर दिया जाय; तो ऐसा करने पर वह अर्थानुरूप भुजंगत्रासिता आकाशचारी बनती है । ८. अलाता
पृष्ठप्रसृतपादस्य परोरोः सम्मुखं तलम् ।
कृत्वा पाणिः स्वपार्वे भूक्षिप्ताऽलाता निरूपिता ॥१००८॥ 1028 यदि पीठ की ओर फैले हुए वलित पैर के तलवे को दूसरे घुटने के सम्मुख करके एड़ी को अपने पार्श्व में गिरा दिया जाय, तो अलाता आकाशचारी बनती है। ९. दण्डपादा
पाष्णिदेशे स्थापयित्वा चरणं नूपुराभिधम् । यत्र स्वकायाभिमुखं जान्वग्रं पुरतो जवात् ।
1029 यदा प्रसारयेद् दण्डपादा साभिहिता तदा ॥१००६॥ जब नूपुरपाद को एड़ी के पास रखकर घुटने के अग्रभाग को अपने शरीर के सम्मुख अति वेग से आगे की ओर फैला दिया जाय, तब उसे दण्डपादा आकाशचारी कहते हैं। १०. विद्युद्दान्ता
वलितः पृष्ठतः पादः शीशे स्पृष्ट्वाथ सर्वतः । 1030
भ्रान्त्वा च प्रसृतो यत्र विद्युभ्रान्ता तदोदिता ॥१०१०॥ जब वलित पैर को पीछे की ओर अग्रभाग में रगड़ दिया जाय और तत्पश्चात् चारों ओर मण्डलविद्ध किया जाय, तो विद्यमान्ता आकाशचारी बनती है।