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चारी प्रकरण
यदि दोनों चरणों का सम्पूर्ण तलभाग पृथ्वी से सटा हुआ हो; जंघाएँ स्वस्तिक मुद्रा में हों; फिर दोनों चरण अर्घ यस स्थानक के रूप में होकर घूमते हुए उपसर्पण और अपसर्पण करें, तो उसे मत्तल्लो भूमिचारी कहते हैं । तरुण मद के अभिनय में उसका विनियोग होता है। विनियोग
नाटये नृत्ये तथा नृत्ते नियुद्धेऽपि भवन्त्यमूः ।
नाट्यवेदेनादिमूलवेदेन परिकीर्तिताः ॥६६७॥ 1015 . नाट्य (अभिनय), नृत्य (ताल, लय तथा रस के अनुसार किया जाने वाला अभिनय), नृत्त (केवल अंगविक्षेपपूर्वक किया जाने वाला अभिनय) और बाहुयुद्ध के भाव-प्रदर्शन में भी इन चारियों का उपयोग किया जाता है। इनका वर्णन नाट्यवेद के मूल स्रोत वेदों में पाया जाता है।
सोलह आकाशचारियाँ (२) १. अतिकान्ता
अ रेकस्य गुल्फे चेदन्यमुद्धृत्य कुश्चितम् । प्रसार्य पुरतः किञ्चिदथोत्क्षिप्य निपातयेत् ॥६६॥ 1016 अग्ने लोकानुसारेण चतुस्तालान्तरादितः ।
प्रतिक्रान्ता तदा चारो विपश्चिद्भिः प्रकीत्तिता IEEET 1017 जब एक पैर के टखने पर दूसरे पैर के मुड़े हुए (कुञ्चित) टखने को लाकर सामने फैला दिया जाय और फिर लोक-रीति के अनुसार चार तालों की दूरी पर उसे उछाल कर सामने गिरा दिया जाय, तो विद्वानों ने उसे अतिक्रान्ता आकाशचारी कहा है। २. अपक्रान्ता
बद्धां विरच्य चारों चेदध्रिमुख त्य कुश्चितम् ।
पार्वे न्यस्येत् तदा चारीमपक्रान्तां जगुर्बुधाः ॥१०००॥ 1018 यदि बद्धा चारी की रचना करके कुञ्चित पैर को निकाल कर पार्श्व में रख दिया जाय, तो विद्वानों ने उसे अपक्रान्ता आकाशचारी कहा है। ३. ममरी
अतिक्रान्ताङ्घ्रिमारच्य व्यत्रं चेत्परिवर्तयेत् ।
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