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प्राधान्यं यत्र पादस्य करस्तदनुगो भवेत् । भवेच्चेद्धस्तको मुख्यः पादस्तदनुगस्तदा । यत्रोभयोः प्रधानत्वं तत्र तौ समगौ मतौ ॥ १०२२॥
जहाँ पैर की प्रधानता हो, वहाँ हाथ उसका अनुगामी होना चाहिए । जहाँ हाथ की मुख्यता हो, वहाँ पैर उसका अनुगामी होना चाहिए । जहाँ दोनों की प्रधानता हो, वहाँ दोनों का समान रूप से प्रयोग करना चाहिए ।
नृत्याध्यायः
यतः पादस्ततः पाणिर्यतः पाणिस्ततस्त्रिकम् । गतिमवदित्वैवं चार्यामङ्गानि योजयेत् ॥१०२३॥
जहाँ पर पैर का प्रयोग हो, वहाँ पर हाथ का भी और जहाँ पर हाथ का प्रयोग हो वहाँ पर कटिदेश का भी प्रयोग होना चाहिए। इस प्रकार पैर की गति समझ कर चारी में अन्य अंगों की योजना करनी चाहिए ।
गत्वा गत्वा यथा चार्यां चरणो भुवि तिष्ठति । कृत्वा कृत्वा स्वकर्तव्यं करस्तद्वत्कटीतटे ॥ १०२४ ॥
१. रथचक्रा
अर्धचन्द्रक नाटये पक्षप्रद्योतको यद्वा
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चारी में जिस प्रकार चरण जा-जाकर भूमि पर अवस्थित होता है, उसी प्रकार हाथ अपनी क्रियाओं को करके कमर पर अवस्थित होता है ।
नृत्तं स्यात् पक्षवञ्चितः ।
कटिक्षेत्रगतः करः ॥। १०२५॥
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स्थानकं चतुरस्रं चेद् विधायाघ्री प्रगच्छतः । श्लिष्टौ पुरोऽथवा पश्चाद् रथचक्रा तदा मता ॥ १०२६॥
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ना में अर्धचन्द्र हस्त-मुद्रा का और नृत्त में पक्षवंचितक या पक्षप्रद्योतक हस्त मुद्रा का प्रयोग होता है । इन दोनों अभिनयों में हाथ कटिदेश पर अवस्थित रहता है ।
पैंतीस देशी भूमिचारियाँ (३)
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जब चतुरस्र स्थानक की रचना करके सटे हुए दोनों पैरों को आगे या पीछे चलाया जाय, तब उसे रथचक्रा चारी कहते हैं ।
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