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९. अर्ध्याधिका
चारी प्रकरण
सव्याघ्रः पाष्णिदेशं चेद् वामः पादः समाश्रितः । श्रथ सव्योsपसृत्याङ्घ्रिः सार्धंतालान्तरे स्थितः ॥ ६८५ ॥ त्र्यस्त्रभावेन पार्श्वे स्वे सव्यो वामाङ्घ्रिपाणिगः । ततोऽपसृत्य वामाङ्घ्रिः सार्धतालान्तरे तथा । स्थितः सार्ध्याधिका चारी तदावाचि विचक्षणः ||६८६ ॥ जहाँ दाहिने पैर की एड़ी के आश्रित होकर बायाँ पैर चले; और फिर दाहिना पैर हटकर डेढ़ ताल की दूरी पर स्थित हो; अनन्तर दाहिना पैर त्र्यत्र भाव से अपने पार्श्व में बायें पैर की एड़ी की तरफ गमन करे; तत्पश्चात् बायाँ पैर हटकर डेढ़ ताल की दूरी पर स्थित हो; ऐसी क्रिया को विद्वानों ने अर्घ्याधिका भूमिचारी कहा है ।
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१०. एलकाक्रीडिता
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मनागुत्प्लुत्य
चेत्पादौ यत्राग्रस्तलसञ्चरौ ।
पर्यायात् पततश्चारी सैलकाक्रीडिता तदा ॥८७॥ 1005
जहाँ अग्रतलसंचर नामक दोनों पैर थोड़ा उछलकर अनुक्रम से गिरते हों, उसे एलकाक्रीडिता भूमिचारी कहते हैं ।
११. शकटास्या
पूर्वभागं शरीरस्य यदा धृत्वा प्रयत्नतः ॥ ६८८ ॥ प्रसारितो भवेद् यत्र पादोऽग्रतलसञ्चरः । वक्ष उद्वाहितं सोक्ता शकटास्या बुधैस्तदा ॥८६॥
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पाणिः स्याच्चरणस्याग्रतलसञ्चारकस्य चेत् । पराङ्घ्रिपृष्ठाभिमुखी यद्वा व्यत्यासतो भवेत् ॥ ९६०॥
जब शरीर के अगले भाग को यत्नपूर्वक पकड़कर अग्रतलसंचर पैर फैला दिया जाय और उद्वाहित वक्ष की मुद्रा बनायी जाय, तब उसे विद्वान् लोग शकटास्था भूमिचारी कहते हैं ।
१२. उद्वृत्ता
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