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नृत्याध्यायः
जब समपादाचारी के दोनों चरण अपने स्थान से हटकर अपने निचले अग्रभाग से पृथ्वी को कूटते हों, तो उसे विच्या भूमिचारी कहते हैं ।
६. जनिता
संज्ञितः ।
यत्र पादो भवेदग्रतल [ सञ्चर ] हृदि मुष्टिकरोsन्यो ग्रीवा यथाशोभं भवेद्यदि ॥६७६॥ सा तदा जनिता चारी विद्वद्भिः समुदीरिता । पादक्रिया चास्यामिति कर्तव्यता परा ॥ ८० ॥
मुख्या
जहाँ एक पैर अग्रतल पर हो, हृदय पर मुष्टि नामक हाथ हो और ग्रीवा सुशोभित हो, वहाँ विद्वानों ने उसे after भूमिचारी कहा है । इसमें मुख्य चरण - क्रिया परम कर्तव्यता मानी गयी है । ७. उत्सन्दिता
यत्राङ्गुल्याः कनीयस्था भागेनाङ्गुष्ठकस्य च । क्रमेण रेचकस्यानुकृत्या पादो गतागतम् ॥६८१॥ विधत्ते सोत्सन्दिताख्या सद्भिश्चारी निरूपिता । केचिन्नृत्तकरं ह्यत्र रेचितं सम्बभाषिरे ॥ ६८२ ॥
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जहाँ कानी उँगली तथा अँगूठे के एक भाग से क्रमशः रेचक के अनुकरण द्वारा पैर बाहर-भीतरहै, उसे विद्वानों ने उत्सन्दिता भूमिचारी कहा है । यहाँ कोई विद्वान् रेचित नामक नृत्य- हस्त का प्रयोग बताते हैं ।
८. चावगति
तालान्तरे पुरो गत्वा सव्येऽङ्घ्रौ पृष्ठगामिनि । तालद्वयान्तरेऽथाङ्ङ्घ्री समावुत्प्लुत्य किञ्चन ॥१८३॥ अपगम्योपगच्छेतामुपगम्यापगच्छतः
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यस्यां सैषा चाषगतिर्भीतिर्गत्यादिषु स्मृताः ॥ ६८४ ॥
जहाँ दाहिना पैर एक ताल के अन्तर पर आगे-आगे चले और बाँया पैर पीछे-पीछे चलें; फिर दो तालों के अन्तर पर दोनों समस्थित और कुछ उछलकर एवं हटकर समीप आ जाँय और समीप आकर फिर हट जाँय ; ऐसी क्रिया को चाषगति भूमिचारी कहते हैं । भय और गमन आदि के अभिनय में इसका विनियोग किया जाता है।
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